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आजादी की लड़ाई में नकारात्मक भूमिका निभाने वाले अंग्रेजों के कृपापात्र, पेंशनभोगी, वफादार राष्ट्रवादी कैसे? -प्रवक्ता सुरेंद्र वर्मा

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रायपुर- छत्तीसगढ़ प्रदेश कांग्रेस कमेटी के प्रवक्ता सुरेंद्र वर्मा ने कहा है कि श्यामा प्रसाद मुखर्जी और सावरकर को भाजपा और संघ के नेता महान राष्ट्रवादी नेता के तौर पर पेश करते हैं, परंतु ऐतिहासिक तथ्य यह है कि भारतीय स्वतंत्रता संगाम में उनकी भूमिका किसी भी तरह से जिन्ना से कम विवादास्पद नही थी, कईं अर्थों में वह स्पष्टतः जिन्ना से भी विवादास्पद और अंग्रेज परस्ती है। 1911 में जेल पहुंचते ही सावरकर के राष्ट्रवाद का नशा उतर गया और 2 महीने के भीतर ही क्षमा याचना करने लगे।

1921 में जब उनको रत्नागिरी भेजा गया तब से उनके क्रियाकलाप निश्चित रूप से अंग्रेजी हुकूमत के सहयोगी के रूप में रहे, राजनीतिक गतिविधियों से दूर रहने लगे। 1937 में उन पर से पाबंदी पूरी तरह से उठा ले गई जेल से रिहाई के समय सावरकर ने अंग्रेजी हुकूमत से पेंशन मांगी जिससे स्वीकार कर लिया गया और उस जमाने में ₹60 प्रति माह की भारी-भरकम पेंशन राशि देना मंजूर किया और वे अंग्रेजों के कृपापात्र पेंशनभोगी वफादार बन गए। 1934 में श्याम प्रसाद मुखर्जी को अंग्रेजों ने कलकत्ता विश्वविद्यालय का कुलपति बनाया।

1937 में मोहम्मद अली जिन्ना के मुस्लिम लीग के साथ श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने बंगाल में सरकार बनाई। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन का श्यामा प्रसाद मुखर्जी और आरएसएस ने जमकर विरोध किया। यहां तक बंगाल के गवर्नर जॉन हरबर्ट को 26 जुलाई 1942 को एक पत्र लिखा और उसमें गांधी और कांग्रेस के भारत छोड़ो आंदोलन का विरोध करते हुए उसे विफल बनाने के लिए भरपूर सहयोग देने का वादा भी किया था। श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने अपने पत्र में साफ लिखा था कि आपके मंत्री हाने के नाते हम भारत छोड़ों आंदोलन को विफल करने के लिए सक्रिय सहयोग करेंगे।