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केवला रानी : देवार लोकगाथा

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भारत का सांस्कृतिक इतिहास अत्यंत गौरवशाली है। यहाँ प्रचलित संस्कारों, गीतों, लोकाचारों, अनुष्ठानों, व्रत और तीज-त्यौहारों में कथाओं-गाथाओं का बड़ा प्रासंगिक व मार्मिक समायोजन होता है। इन्ही गाथाओं को पुनः स्मरण करने के लिए ही तीज-त्यौहार व पर्व मनाए जाते हैं। वैसे भी भारत पर्वों व उत्सवों का देश है। इसमें मनुष्य की बुद्धिमता, वीरता, साहस, त्याग, न्याय, दया, करूणा के श्रेष्ठ उदाहरण समाहित होते हैं। रामायण महाभारत भगवत गीता से लेकर सारे वेद-पुराण सहित अन्य ग्रंथों में कथाओं का साहित्यिक व काव्यात्मक रूप में गुफंन होता है। ये सभी संस्कृति के विशिष्ट पहलू हैं।

संस्कृति की इसी पवित्र धारा को छत्तीसगढ़ की सोंधी मिट्टी में देवार जाति के लोग जाने-अजाने में बिखेरते हैं। ‘‘देवार’’ जाति छत्तीसगढ़ में घुमन्तु है। समय के परिवर्तन व शिक्षा के प्रभाव से अब ये लोग भी किसी ग्राम व शहरी क्षेत्रों में स्थायी रूप से बसना प्रारंभ कर दिए हैं। पर सदियों पहले तक जीविका के लिए सुअर पालते और घूम-घूम कर गीत गाना व ‘रुं जू’ (सरांगी) बजाकर लोगों का मनोरंजन करते थे। इनके द्वारा ‘‘देवार करमा’’ के साथ ही लोक गाथाएं विशेष रूप से गायी जाती हैं। इसमें कुछ ‘‘नारी प्रधान’’ हैं तो कुछ ‘‘वीर पुरूषों’’ व ‘‘राजा-रानियों’’ की गाथाएं हैं। साथ ही सरहदी और देश ‘‘प्रेमाख्यानों’’ को भी इन देवारों ने अपनी गायन शैली का अंग बनाया। यथा स्थान और श्रोताओं की उम्र, रूचि को ध्यान रखते हुए मर्यादित ढंग से गाथा प्रस्तुत करने की परम्परा है।

इतिहास की दृष्टि से देवारों द्वारा गायी जाने वाली लोक गाथाएं मध्ययुगीन है। इस समय तक राजा को ईश्वर की भांति पूजनीय माना जाता था। इनकी पूजा केवल राजा होने के कारण नहीं होती थी, अपितु प्रजापालक रक्षक भी होते हैं। साथ ही आम जनता उन पर काफी श्रद्धा रखती थी। तब राजा का परागन करने वाले कवि, भाट, चारण, दरबारी हरबोलवा राज दरबारों की शोभा बढ़ाते थे। इस तरह चारण-कवियों की रचनाओं द्वारा वाचिका परम्परा समृद्ध होती चली गयी। चूंकि देवार जाति के आस अपना परम्परागत व स्थायी व्यवसाय नहीं था। अतः वे छत्तीसगढ़ में चरणों की तरह राजाओं, वीर-पुरूषों, बहादुर व चरित्रवान नारियों का यशगान करने लगे। इसमें देवार महिलाएं भी पुरूषों का साथ देती थी। साथ में गोदना गोदने का कार्य भी करती थी।

‘‘देवार’’ खुद को उच्चकुल का मानते हैं। उनके अनुसार ये रतनपुर के प्रसिद्ध मल्ल गोपाल राय और गोड़ क्षत्रिय कुल गोत्र से संबंधित है :-
‘‘चिरई मा सुन्दर पतरेंगवा,
साँप सुंदर मनिहार।
राजा मा सुंदर गोड़ रे राजा,
जात सुन्दर देवार।।’’

‘‘देवार’’ द्वारा गाए जाने वाले गीत ‘‘देवार‘ करमा’’ के नाम से प्रचलित हैं। कई लोग आज भी इन गीतों को ‘‘देवार’’ गीत ही कहते हैं। फीदाबाई, मालाबाई, मानबाई, सफरी मरकाम, रेखा देवार छत्तीसगढ़ में चर्चित नाम हैं। इसके साथ ही पुरूषों द्वारा सरांगी (रूंजूँ) के सहारे दशमत उड़नीन, नगेसर कइना, चंदा-ग्वालीन, बिलासा केंवटीन, अहिमन रानी, फुलकुंवर, बहादुरकलारीन, रेवारानी, केवलारानी, फूलबासन, लोरिकी ढोला-मारू, लोरिक चंदा, सुतनुका-देवदीन, लीलागर, बोथरू, गोपाल राय बिझिया, हीराखाम, क्षत्री बीर सिंह, रायसिंह, बीर-बंधु, धुरवा-रमन्ना, आल्हा आदि गाथाएं गाई जाती हैं।

नारी प्रधान लोकगाथाओं में देवारों द्वारा ‘‘दशमत कइना’’ के साथ ही ‘‘केवलारानी’’ की गाथा प्राथमिकता के साथ गायी जाती है। छत्तीसगढ़ में जब आकाशवाणी, दूरदर्शन और संचार के दूसरे माध्यम नहीं थे, तब यही देवार एक गाँव से दूसरे गाँव में घूम-घूम कर गीत-गाथा गाते, गोदना गोदते और किसी तरह अपना जीवन यापन करते थे। झुमुक देवार, सुंदर देवधर, झुमुक दास, भागीरथी, झल्लू राम नेताम साजा वाले तो आज भी पूरे उत्साह के साथ गा उठते हैं:-
‘‘बड सतवन्तीन केवला रानी
पाते ल पाती पठोय।
जा रे मोर पोसे सुवना,
हरदी सहर बर जा।।
पाके संदेसा राजा मदन सिंह,
करथे घोड़ा तियार।
गढ़े ठाढ़े मोर गवना कराके
केवला रानी ल लानय घिलार।।’’

केवला रानी का परिचय :-
केवला रानी बिंद्रानवागढ़ के राजा शिवरतन की बेटी थी। केवला रानी हरदी शहर के राजा मदन सिंह की पत्नी थी। उसका विवाह बचपन में ही हो गया था। उसकी माता ने अपनी गोदी में बैठा कर पर्रा में भावंर पार कर विवाह कर दिया था। केवला छोटी कन्या थी। बचपन की सारी बातों को भूल जाती है। जब वह यौवन की दहलीज पर कदम रखती है तब उसे ख्याल आता है कि उसकी आयु की लड़कियों और लड़को का ब्याह हो गया है। लड़कियाँ ससुराल चली गयी हैं। वहीं लड़कों की बहुएं आ गयी हैं। सब हंसी खुशी है तब एक दिन केवला अपनी मां से पूछती है :-
‘‘अतेक जाड़ में कंवला रानी अटल कुंवारी,
मोर जंवरिहा के दाई होगे बरे बिहाव।
संगी मोर हांसय हांसय ओ दाई हांसय मोर जंवरिहा,
कोरवा बैठार के ओ बेटी लगीन धरायेंव।।
पर्रा बैठार बैठार के भांवर, परायेंव,
कोने गाँव में हावय ओ दाई मोरे ससुरार।
हरदी सहर में बेटी तोरे ससुरार।’’

माता के यह बताने पर कि मैंने तुम्हें पर्रा में बैठा-बैठा कर तुम्हारा भांवर (ब्याह) पड़ा दिया है। तुम्हारा ससुराल हरदी शहर और उसका पति राजा मदनसिंह है। फिर केवला को राजा तक संदेश भेजने का विचार आता है। केवला रानी को विरह वेदना सताने लगती है। वह व्याकुल हो उठती है। इसके पहले वह अपने को अटल कुंवारी समझती थी। पर उसका तो विवाह हो चुका है। उसकी बैचेनी लगातार बढ़ती जाती हैं। वह राजा के पास संदेश भेजने के लिए सुवा तोते को तैयार करती है :-
‘‘माता तोर पारवती अउ पिता महादेव।
का तोला मारवं मय सुवना, का तोला पटकवं
का तोला पुदकवं रे सुवना, डेना के पंखुरिया।’’
का तोला पटकवं रे सुवना, पिंजरा के मोर’’
झन मोला मारव ओ दीदी, ओ पिंजरा के मोर।
झन मोला मारव ओ दीदी, डेना ओ पंखुरिया।।
सोने के मंचुलिया मं सुवना, राजा मोर बइठे हे।
उड़ि-उड़ि जाबे सुवना, उही रे पीपर मां।।

केवला रानी पार्वती को माता और भगवान शंकर को पिता मानती है। तोते को कहती है- ‘‘क्या मैं तुम्हें मार डालूं, क्या तुम्हारे डेने के पंखों को पुदक दूं, क्या तुम्हें पटक दूँ ?’’ वह विरह वेदना से तड़प उठती है। तब तोता अपनी जान का बचाव करते हुए कहता है- ‘‘मुझे मत मारो, डेने के पंखों को मत उखाड़ों। सोने की मचुलिया (छोटी खाट) पर राजा बैठा है, उसे मैं संदेशा दे आऊंगा।’’

तब केवला रानी पत्र लिखने की तैयारी करती हैं। वह अपनी आँचल को चीर-चीर कर कागज बनाती है। काड़ी खूंटी, तिनको से कलम और स्थानीय रंगों से स्याही बनाती है। पत्र लिखना प्रारंभ करती है। सबसे पहले वह सीता राम तथा बाद में राजा को प्रणाम लिखती है। साथ ही मुख्य भाग में वह राजा पर सीधा प्रहार करती है कि यदि तुम मर्द हो तो शीघ्र मुझे गवना कराने का वचन देना। क्योंकि मर्द की बात और हाथी के दाँत मजबूत यानी अटल होते हैं। रानी यह भी बताती है कि तुमने मेरे साथ सात फेरे लिए हैं। मेरे हृदय की धड़कन बढ़ गयी है। गवना कराने का समय आ गया है।
‘‘पहिली ले लिखथे केवला सिरी सीता रामे।
दूसर में लिखत केवला ओ ए दे ओ सलामे।।
मरद मोर होवय तो आही मोर बराते।
मरद के बात रे सुवना हाथी के दॉंत।।
तीसर मय लिखवं दाई मया मोर पिरीते।
बरे बिहावा मोर भेजिहौं मय पतिया।।
धड़कत हावय मोर छतिया ओ दाई।
गवना पठौनी के समे आगे ओ दाई।।’’

इस तरह केवला रानी पत्र लिखकर तोते को राजा तक संदेशा पहुँचाने के लिए भेजती है। उस समय राजा मदन सिंह सोने की मचुलिया पर बैठे कोई किताब पढ़ रहा था। तभी वहाँ ‘‘पारस’’ नामक पीपल वृक्ष पर तोता बैठा। राजा को बैठे देखा और उसकी जंघा पर पत्र गिरा दिया। वह पत्र खोल पढ़ा। उसमें बड़ी ही चुनौती भरी बात थी-‘‘औरत है तो चूड़ी पहन कर बैठा रहे? यदि मर्द है तो गवना कराके ले जाए ?’’ यह बात राजा को चुभ जाती है। खाना-पीना बंद कर देता है।

वह अपनी माता को सारी बात साफ-साफ बता देता है। वह चिंता में पड़ जाती है। महल में गवना की सारी तैयारी होने लगी। उस समय गवना भी विवाह की तरह हुआ करता था। भोजन, कपड़ा लत्ता की व्यवस्था की गई। बारात जाने की मुनादी भी करा दी गयी। नाते-रिश्तेदार आ गए। राजा सभी को लेकर बारात जाने लगे। नगर के लोगों ने बनाव श्रृंगार कर बारात के लिए प्रस्थान किया।

राजा मदन सिंह का पहनावाः-
राजा मदन सिंह का बड़ा ठाठ-बाट था। जब केवला रानी ने चुनौती भरा पत्र भेजा तो उसका पारा चढ़ गया। उसने राजसी वेशभूषा पहना। पीताम्बर धोती, गले पर गमछा, हाथों में रूमाल, सिर पर कलगी सहित पागा, तन पर रेशमी कुर्ता, कमर पट्टा, हाथों की कलाईयों पर चांदी का चूरा, पैरों में मोजड़ी जूता। वह चर्र-मर्र की आवाज करने वाल। कमर पर पट्टे के सहारे तलवार खोंच लिया। इस तरह राजा मदन सिंह ने पूरे राजसी वेशभूषा में बारात निकाला। अपने ससुराल की ओर प्रस्थान करता है। नगर भर में गांडा और कोटवार हॉंका पार देते हैं- ‘‘राजा मदन की बारात जा रही हैं।’’
’’बाम्हन बलावै अऊ लगिन धरावै,
गाँव में ये दे भई हाँके परावै।
राजा मदन सिंह के भई चलव गा बराते,
पहिरे पिताम्बर धोती डारे उरमाले।।
घोड़ा घोड़साल रे भई, घोड़ा सम्हरावै।
राजा तो मदन सिंह रे भई, रेंगय गा बराते।।
गाड़ा कोटवार रे भई, हांके जब पराय।
राजा तो मदनसिंह के चलव गा बराते।’’

ससुराल में मदनसिंह का स्वागत :-
राजा मदन की बारात का बड़ा जोरदार स्वागत किया जाता है। पारंपरिक ढंग से गाँव के बाहर में ही बरगद पेड़ के नीचे सभी बाराती आकर रूके। बैठकर सुस्ताने लगे। अपनी-अपनी सवारियों से उतरकर वे उनके लिए भी चारे-पानी की व्यवस्था करने लगे। कुछ ही देर में बरातियों को ‘‘परघाने’’ का नेग सम्पन्न हुआ। इसके बाद नाचते गाते उन्हें ‘‘जनवास’’ घर तक ले गए। वहॉं नाई ने सभी का पैर धोने का नेग शुरू किया। बीच-बीच में बराती नाई से हंसी-दिल्लगी भी कर लेते थे। सबने पैरों को धुलवाया पर राजा मदन सिंह ने स्वयं नहीं धुलवाया। वे तुरंत रानी केवला को गवन कराने की जिद करने लगे। एक बारगी सब लोग चकित हो गए। राजा ऐसी जिद क्यों कर रहे हैं।

घरतिया लोग बरातियों के खाने-पीने सोने बसने की व्यवस्था करने। उनका पूरा ख्याल रखा जा रहा था। पर राजा मदन सिंह को कौन संभाले? किसी को सूझ नहीं रहा था। बात महल तक चली गयी। राजा-रानी को यह सुन कर बड़ा ही आश्चर्य लगा कि राजा मदन सिंह ऐसी अकड़ क्यों दिखा रहे हैं? पर उनके टेक के सामने किसी की न चली। आखिर में झगड़ा न बढ़ाते हुए रानी केवला को बिदा करने की तैयारी की जाने लगीं तब तक बाकी बरातियों का खानपान होने लगा।
‘‘सबो बरतिया तो पहुँचन लागे,
बरतरी ठिहा लगाय।
छकड़ा सवारी ल तिर मं खड़ा कर,
ढिल देवें चारा-भूसा बर।।
सबो बरतिया क भई गोड़ ला धोवावे,
नाऊ छोकरा ल कुड़कावे।
राजा मदन सिंह घोड़ा ले नई उतरय
अन्न न तो खाववं ओ सपर पानी नइ पियवं,
ठाढ़े गवन तो ससुर लेगवं कराके,
सबो झन बरतिया खवै अउ पियै।
खाई अउ पी के भई सब गवन करावै,
राजा तो मदन सिंह रे भाई घोड़ा ले नई उतरव।।

केवला रानी के श्रृंगार :-
राजा मदन सिंह जब घोड़े से नहीं उतरा और ठाढ़े गवन कराने की जिद करने लगा तब रानी केवला समझ गयी कि राजा को शब्दों की चोट लगी है। वह तिलमिला उठा है। राजा का यह गुण भले सब की नजरों में खराब हो सकता है पर केवला रानी को उतना बुरा नहीं लगा था। क्योंकि वह विरह की अग्नि में जल रही थी। उसे राजा का सानिध्य प्राप्त करने की चाहत थी। मन में एक सुखद दर्द था। अतः केवला रानी राजा को अपने नजरिए से देखने लगी। अब उसे भरोसा हो गया था राजा में सच में पुरूषार्थ है। वह निकम्मा या कमजोर नहीं है। यह सोच कर सुखानुभूति होती थी।

ऐसे में केवला रानी दूसरों की बातों पर ध्यान न देकर अपनी पति परायणता का परिचय देने को उतावली होने लगी वह अपना श्रृंगार करने लगी। उसका नख-शिख श्रृंगार देखते ही बनता था। तन पर कोसाही लुगरा, छिंटही पोलखा, चुंदी गंथाए, बेनी भर चाँदी के खोपिया, गर भर सोन के पुतरी, कमर मं चांदी के छह लरिया करधन बांह मं बहुटा, कलाई भर हरियर चूरी, निंघा ऐठी, अंगुरी भर सोने के मुंदरी, कान मं झुमका, नाक मं नथली, पांव मं पैजन, अंगुली में चुटकियाँ आदि पहनती है। रानी केवला उस समय साक्षात् परी जैसी नजर आ रहीं थी। दासियाँ एक-एक गहने व कपड़ों को ठीक तरह से पहनने व ‘‘गरू चाल’’ चलने का सालिका बता रहीं थी। पर केवला रानी को तो पति मिलन की सुध थी बाकी बातें तो दूसरों को दिखाने के लिए थी। पर दासियों को भला इस बात का अहसास क्यों हो पाता? रानी गवन के लिए पूरी तरह तैयार हो गयी।
‘‘कंवला मोर पहिरे सोरह सिंगारे,
बाई मने मन करे बिचार।
राजा मदन के जी खिसिया गे हो,
ठाढ़े गवन बर तियार।।
कोसाही लुगरा ल भिर के पहिने,
मोर छिंटही पोलखा ताय।
तन भर गहना साज सिंगार,
पांव म महूर रेंगाय।।
गर के पुतरी लकलक चमकाय,
कनिहा मं करधन चपकाय।
बेनी के खोपिया रूपिया सही दिखे,
काने म झुमका सुहाय।।
गहन मं लद गे कंवला रानी,
चाल घलोक गरूवाय।
दासी चेरनीन मन आधू-पीछू रेंगय,
रेंगे चाल बताय।।

इस तरह सोलहा श्रृंगार करके केवला रानी महल से बाहर निकली। उसके रूप श्रृंगार को देखकर कुछ देर के लिए सभी मंत्रमुग्ध हो गए। उसे सभी नख-शिख निहारने लगे।

राजा-रानी के बीच संवादः-
महल से बाहर जब केवला रानी निकली तब राजा की नजर उस पर पड़ती है। रानी का रूप सिंगार देखकर कुछ देर के लिए वह मोहित सा हो जाता है। पर वह अपने मन के क्रोध को रोक नहीं पाया। उल्टा ईर्ष्याग्नि से जल भुन उठा। तब राजा मदन सिंह सभी नाते-रिश्तोदारों और बारातियों को घर लौटने का आदेश दे देता है। रानी को पास बुलाता है और अपने घोड़े की पूंछ से बांध देता है। राजा के इस अनायास हरकत से रानी सहसा घबरा जाती है। राजा कहता है ‘‘तुम्हारी तरह मेरे महल कई गोबर फेंकने वाली, कई पानी भरने वाली दासियाँ हैं।’’ घोड़ा को चाबुक लगाता है। वह सरपट दौड़ने लगता है। रानी केवला कराहने लगती है। वह दीनता के भाव से कहती है – ‘‘आपके महल में कितनी ही दासियाँ गोबर करने वाली, पानी भरने वाली, गौरसी भरने वाली, कचरा फेंकने वाली इन्हीं की तरह मैं भी रह लूंगी।’’ रानी का सारा श्रृंगार नष्ट हो जाता है। वह कहराने लगती है। एक-एक कर आठ-दस कोस के बाद रानी केवला का सारा बदन बिखर जाता हैं। कहीं हाथ तो कहीं पैर, कहीं सिर, तो कहीं जांघ, रास्ते भर मांस के लोथड़े बिखर गए। उसका प्राण तो कब का छूट गया था। चील, कुत्ते, कौंवे उसके माँस को खाने के लिए टूट पड़े। इस जन्म में रानी राजा का मिलन नहीं हो सकता।

रानी अपने पति को पाने की चाहत में मिलन के पूर्व ही सारा कुछ खो बैठी। पर राजा के मन में जरा भी हिचक नहीं हुई। वह न जाने कैसी दुश्मनी कर बैठा था। किसी तरह रानी को बर्बाद कर देना चाहता था। राजा रानी को क्षत-विक्षत कर महल वापस आ गया। उसे किसी बात की सुध नहीं रही। जैसे कुछ हुआ ही नहीं। वह राजपाट के काम में लगा रहा।
‘‘केवला मोर पहिरे सोरह सिंगारे,
बाहिर में निकरय राजा मदन सिंग।
सबोझन बरतिया तो घर ब रेंगे,
राजा तो मदनसिंह रे भई घोड़ा कर पूछी में ।।
घोड़ा ला कुदावय अऊ जब केवला हर घिलरय।
गोबर के हेरइया राजा मय पानी के भरइया।।
अल्लर कल्लर के जब केवला हर रोवय।
टूटी फूटी गईस रे भई मोर सोरह सिंगारे
कंवला ओ रानी के भई मोर छूटिगे पराने।।
अंते तोर हाथ परे कंवला अंते तोर गोड़े।।
चिले अउ कउवा ओ कंवला झूमन जब लागय।।

केवला रानी का पुनर्जन्म :-
घोड़े से घसीटने पर केवला की मौत हो जाती है। प्राचीन भारतीय मान्यता के अनुसार वह अखण्ड सौभाग्यवती का स्थान प्राप्त कर चुकी थी। भले ही उसकी मृत्यु किसी तरह से हो। कुछ देर पश्चात उसी मार्ग से होकर नारद मुनि और पार्वती गुजरे। दोनों ने क्षत-विक्षत हाड़-मांस का लोथड़ा देखा वे अचंभित भी हुए। पर घृणा को छोड़कर वे दोनों हाड़ा-गोड़ा को एकत्र करने लगे। दूर-दूर तक जाकर केवला रानी के सारे अंगों को एकत्र करने लगे। तब देवी पार्वती नारद मुनि से केवला रानी को जीवित करने का वचन मांगती है। नहीं तो अन्न-जल का त्याग करने का प्रण ले लेती है। तिर्या हठ से नारद परिचित थे। नारद अमृत पानी छिड़कर केवला रानी को जीवित करते हैं। वह निवस्त्र जीवित हो उठी। तब नारद जी सिर की पगड़ी को निकालकर रानी को देते हैं। रानी उसे पहन लेती है।

माता पार्वती और नारद मुनि का वह धन्यवाद करती है। दोनों रानी को जीवित कर अंतर्ध्यान हो जाते हैं। रानी पहले अपने मायके की राह पकड़ती है। बाद में सोच-विचार कर ससुराल जाना उचित समझती हैं। ससुराल की राह पकड़ कर चलने लगी।
‘‘ओती ले भई आवय नारद मुनि,
उहिमेरे आवय भई पारवती।
हाड़ा ओ गोड़ा ला केवला के सकेलय,
पारबती हर सबोला सकेलय।।
सुनि ले तैं मुनि लेये नारद बचन हमारे,
इहिला जियावे तैं नारद तभे अन्न खइहवं
पारबती हर हठे पकड़ लिस,
नारद मुनि हर भई अमरित छींचें।
अमरित छींच के भई कंवला ल जियावे
मुड़कर पगड़ी ल भई नारद हर देवे।
केवला रानी जब पहिरन लागे,
ससुरे के बदले ओ केंवला मइके में जइबे।।
ससुरे के रद्दा ल भई केवला जब पकड़य।।’’

दूसरा जन्म प्राप्त करने नर केवला रानी अब भी अपने ब्याहता राजा मदन सिंह के पास जाने का निर्णय लेती है। जो कि भारतीय नारी का आदर्श रूप है। हर परिस्थिति में पति परायणता का परिचय देना ही स्त्री का धर्म है। पति को भी हर हाल में स्त्री व माता-बहनों की रक्षा करना है। यहॉं राजा मदन सिंह चुनौती, प्यार भरे खीझ को दूसरे अर्थों में लेकर स्वयं पत्नी हन्ता बन बैठा। वह अपने धर्म का पालन करने में असफल रहा।

राजा की पराजय और पश्चाताप :-

रानी केवला के पुनर्जन्म की घटना बड़ा ही मार्मिक है। नारद मुनि और माता पार्वती के आशीर्वाद से जब उसे पुनः जन्म मिल जाता है। तब वह राजा से मिलने फिर ससुराल की ओर प्रस्थान करती है। महल पहुॅंचकर देखती है वहॉं राजा पासा खेल रहा था। वह भी पासा खेलने बैठती है। पासा लगातार पड़ने लगे। एक-एक कर रानी केवला दॉंव जीतने लगी। राजा चकित हो गया। वह रानी का परिचय पूछने लगता है। वह पहले तो बहन कहकर संबोधित करता है। पहले पासे में रानी राजा मदन सिंह की धन-दौलत जीत जाती है। दूसरे पासे में वह गाय-भैंस-पशु धन को जीत जाती है। तीसरे पासे का दॉंव जीत जाने के बाद राजा के पास कुछ नही बचता। वह रानी के पांवों तले गिर जाता है।

अभी रानी केवला अपना परिचय दे नहीं पायी थी। जब राजा कातरता और दीनता के भाव से उससे पूछने लगता है। तब रानी अपने पुनर्जन्म की कथा बताती है-‘‘इस गाँव में न तो मेरा खेत है और न ही घर द्वार। तुम मुझे गवना कराने गए थे। पर तुमने मुझे घोड़े की पूँछ में बांध कर घसीटा। मेरी मृत्यु हो गयी। पर कुछ ही देर में माता पार्वती और नारद मुनि ने मुझे अमृत पिलाकर जीवित किया। नारद मुनि ने अपनी पगड़ी का कपड़ा देकर मेरी इज्जत बढ़ायी। उसी ने मुझे ससुराल की राह पकड़ा दी। मैं ही केवला रानी हॅूं। जिसका तुम गवन कराने गए थे। दूसरा जन्म लेकर आयी हूँ।
‘‘राजा तो मदन सिंह हा पासा में बइइे,
उहीच ठौर मं केवला हर पहुंचगे।
कोन गॉंव के हावस ते हर रहइया,
गॉंव में तो घर नइये राजा खार में तो खेते।।
पहिलिच पासा में ओ कंवला भैया ओ गोहड़िया।
राजा तो मदन सिंह हर तो भई मोर कंवला हर जीते,
राजा मदन सिंह हर तो भई कंवला के पांव मं गिरगे।
कोन गांव के हावस ओ बहिनी तेहर रहइया,
गवन कराके हो राजा तहीं मोलालाने।
घोड़ा के पूछी में राजा मोला बांधे रहे।।
घोड़ा ला दबाये जब राजा त मेंहर गिरेंव
ओती ल आइस राजा जभे पार्वती।
हाड़ा अल गरेड़ा ला राजा जब सकेलिस।।
अमरित पानी राजा नारद जब छीचिंस।
मूड़ के पगड़ी ला राजा नारद जब देइस,
उहीच पगड़ी ला राजा महीं, जब पहिरेंव।
नारद जब पूछिस राजा ससुरे जाबे ते मइके’’
ससुर के रद्दा जब मेहर धरलेंव,
कंवला रानी हो राजा मही हर त आंव।
राजा मदनसिंह जब हार गइस।।’’
सुनरानी मोर बात, दया कर रानी।’’
अपन पति बर भूल-चूक होई जाय।
चल रानी अपन महल, सुघ्घर करबो राज।
दया-मया बरगाबो रानी, भूल जा काली के बात,
मया पिरीत मं दूनों बंधाबो महुआ कस लाटा।।

रानी केवला के मुख पुनर्जीवन की कथा सुन राजा मदन सिंह को आघात पहुँचाता है। उसे काफी पछतावा होता है। अब उसका पुरूषत्व जाग जाता है। कैसे उसने राजा होकर खुद की ब्याहता को मौत के घाट उतारा। वह भी घसीट-घसीट कर। पर जब उसी रानी केवला ने पुनर्जन्म की कथा बतायर तब उसके मन में प्रमांकुर फूटने लगता है। रानी की विरह वेदना का ध्यान आता है। उसे इस बात का अहसास होने लगता है कि रानी इतने दिनों तक विरह की पीड़ा केसे सहन कर पायी होगी?

राजा एक बारगी सिहर जाता है। वह मन ही मन अपने को धिक्कारता है। आगे दोनों काफी दिनों तक सुखपूर्वक जीवन बिताते हैं।

देवारों द्वारा परम्परा से गाए जाने वाले गीतों के साथ लोक गाथाओं को विशेष रूप से गाया जाता है। इसमें न सिर्फ भारतीय नारियों के प्रेम प्रंसगों की कथा है अपितु नारी के आदर्श रूप, उसकी करूणा, दया, ममता, पति परायणता, विरह व श्रृंगार का सुंदर संयोजन होता है। वहीं पुरूष पात्रों की वीरता, पौरूष, संघर्ष, जुझारूपन का प्रस्फुटन भी है। इनके द्वारा नारी मर्यादा की रक्षा उसके अस्तित्व की रक्षा, त्याग, बलिदान की घटनाओं का बड़ा ही रोचक व मार्मिक उल्लेख होता है।

गाथा प्रस्तुतिकरण के समय देवार जिस उत्साह व लय-ताल में सरांगी के साथ गाते हैं तब ऐसा प्रतीत होता है मानो यह घटना कुछ दिनों की हो। जीवन्त प्रस्तुति उनके द्वारा होती है। यह प्रदेश की वाचिका साहित्य का विशिष्ट भाग है। प्रस्तुत गाथा में केवला रानी की विरह, मृत्यु, पुनर्जन्म के साथ पुनर्मिलन का रोचक वर्णन है।

राम कुमार वर्मा
म.न. 22-23, ब्लाक 4/ई
दक्षिण वसुंधरा नगर, भिलाई-3

                             साभार--------     http://dakshinkosaltoday.com/