मल्टीप्लेक्स और ओ टी टी के इस दौर में यदि 80-90 के दशक की फिल्मों की बात करें तो, पूरा नजारा एक कहानी की तरह आँखों के सामने से गुजर जाता है..☺️🤗
उस समय में फिल्म देखने जाना एक रोमांच जैसा था और अपने पसंदीदा कलाकार की फिल्म देखने जाना तो और भी मजेदार अहसास था।
फिल्में देखने का शौक और जेब में सीमित पैसा…🙁
उस दौर में सिनेमा घरों में तीन ही क्लास हुआ करते थे…
लोवर क्लास ..1 रुपए 35 पैसे
अपर क्लास …1 रुपए 60 पैसे
और
बालकनी… 3 रुपए 20 पैसे
उस समय के अख़बारों में एक पूरा पेज, सिनेमाघरों में लगी हुई फिल्मो के पोस्टर्स, उनके शोज तथा उनमे आने वाली भीड़ के वर्णन से भरा रहता था।
मसलन…
अपार भीड़ का चौथा सप्ताह…
राज एयरकूल्ड टॉकीज मे शानदार 5 खेलों मे देखिये…
सम्पूर्ण परिवार के देखने योग्य..
महिलाओं के विशेष मांग पर.. पुन: प्रदर्शित .
एडवांस बुकिंग 1 घन्टे पहले शुरु…
अखबार मे सबसे पहले फिल्मों का पेज पढा जाना बहुत आम था और उपरोक्त सभी शब्द हमे बहुत रोमांचित करते थे..😊
कहीं-कहीं अपार गर्दी जैसे शब्दों का भी प्रयोग होता था.. कहीं-कहीं हीरो या खलनायक के सुपरहिट डायलॉग भी फिल्मों के फोटो के साथ लिखे होते थे। 🤓
जैसे.. जली को आग कहते हैं बुझी को राख कहते हैं, जिस राख से बने बारूद ..उसे विश्वनाथ कहते हैं…… 👊
डॉन का इन्तजार तो 11 मुल्कों की पुलिस कर रही है लेकिन डॉन को पकड़ना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है।🤩
पुष्पा.. आई हेट टीयर्स… 😍
😂😂😂😂
यदि कहीं से 1 रुपये 35 पैसे का भी जुगाड़ हो जाए तो अपना काम बन जाता था और 1 रुपये 60 पैसे हों तो फिर हम शहंशाह से कम नहीं।
दोस्त के साथ जाने पर भी अपना-अपना पैसा देने की पारदर्शी प्रथा थी, किसी को बुरा भी नहीं लगता था, पैसे से अभाव वाला मित्र पहले ही अपने को किनारे कर लेता था।😅
जेब में पैसे होने और फिल्म देखने की इच्छा होने के बावजूद घर वालों से अनुमति मिलना बहुत बड़ी उपलब्धि हुआ करती थी। 🫢
स्कूल से भाग कर या घर मे बिना बताए फिल्म देखने जाना अत्यन्त रोमांचित करने वाला कदम होता था और किसी को पता नहीं चलना, किसी उपलब्धि से कम नही होता था। यह उपलब्धि हमे और रोमांच और खतरे से खेलने की प्रेरणा और हौसला देती थी। 👍💪
आज के दौर में ‘आन लाइन’ टिकट बुक कर.. फिल्म शुरू होने के 5 मिनट पहले पहुँचने वाले युवा शायद उस समय सायकल से घर से सिनेमाहाल तक की दुरी.. और.. मन में चल रहा द्वन्द.. कि टिकट मिलेगा या नहीं… की कल्पना भी न कर सकें….😐
मोहल्ले के कुछ “भाई लोगों को” भारी भीड़ में सिनेमा में टिकट लेने में महारत हासिल हुआ करती थी.. ऐसे लोगों के साथ सिनेमा देखने जाने में एक विश्वास रहता था.. कि..चाहे जो भी हो … सिनेमा तो देख कर आयेंगे.. ही 🤝🤝
टिकट बुकिंग क्लर्क से…. पहचान होना या गेट कीपर से पहचान होना ऐसा कान्फिडेंस देता था.. जैसे साक्षात फिल्म का हीरो.. मदद करने आ गया हो.. 🙏🙏🙏
कभी-कभी.. लाइन में टिकट.. खरीदने में .. शर्ट का फट जाना या हवाई चप्पल का टूट जाना तो आम बात थी… 😜😜
मुद्दा तो ये हुआ करता था कि टिकट मिला या नहीं…..
एक छोटी सी बुकिंग खिड़की में .. गिनती के पैसे .. मुठ्ठी में बंद करके, जिसमे पहले ही एक हाथ के घुसने की जगह में तीन-चार हाथों का घुसा होना….. 😨😱
और जब टिकट क्लर्क मुट्ठी को खोलकर पैसे को निकालता था.. तब चिल्ला कर कहना भैया…..
“तीन टिकट…”😟
टिकट मिलने पर अपना हुलिया ठीक करते हुए.. अपने साथियों को खोजना .. 😎
और फिर सिनेमा हाल के भीतर पहुँच कर.. पंखे के आस-पास अपने लिए सीट हासिल करना।
सोचता हूँ कि… जिस काम को जितनी तन्मयता से किया जाए उसके पूर्ण होने पर उतनी अधिक ख़ुशी होती है…..
तब की फिल्मों की कहानी… महीनों याद रहती थी… अब इसके बिलकुल विपरीत है।
अब आप 24 घंटे पहले टिकट बुक कर लेते हैं.. तो… रोमांच तो खत्म हो गया.. 🥱
टिकट कन्फर्म है.. तो.. फिल्म देखने जाने पर सिनेमा हाल में भीड़ होगी या नहीं .. सिनेमा देख पायेंगे या नहीं … वाला द्वन्द समाप्त हो गया… 😶
टिकट घर से बुक हो चुका है तो.. लाइन में लगकर टिकट लेने पर शर्ट फटने या हवाई चप्पल के टूट जाने की सम्भावना या आशंका भी खत्म हो गई.. 😂😂😂
सिनेमा रिलीज होने की संख्या इतनी हो गई है.. कि अब .. गाने तो दूर कहानी भी याद नहीं रहती…
सिनेमा अब.. सार्वजनिक स्थानों पर चर्चा का विषय भी नहीं रहा.. जो कि पहले हुआ करता था……
विज्ञान के अविष्कार ने… हमे बहुत कुछ खोने को मजबूर कर दिया….
कुछ बातों का अहसास फिर से करने के लिए पुराने दौर पर लौट जाने की इच्छा होती है… और शायद इसीलिए हर किसी को अपने पुराने और गुजरे हुए वक्त को याद करना, उस दौर की बार-बार बातें करना बहुत अच्छा लगता है, जहां ना कपट था ना दिखावा… सब कुछ सरल और स्वाभविक…
☺️🫶
वाकई बहुत ही कम पैसों मे हमने बेहद खूबसूरत और यादगार बचपन और किशोरावस्था को जिया है, जिसकी आज के दौर के बच्चे कल्पना भी नहीं कर सकते। 👏👏
एक गीत की पंक्ति उन यादों के मौसम के लिये बिल्कुल सही लगती है…
“कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन…”