आज के दौर की ऐसी सरकारें तो नीतियों और कानून के जरिए अपने ही नागरिकों का उत्पीड़ कर रही हैं और उन्हें लगातार निशाना बना रही हैं और उन्मादी भीड़ और हिंसक लोगों को बढ़ावा दे रही हैं, उनकी कामयाबी के रिकॉर्ड इतिहास में नहीं मिलते।
भारत में कट्टरता पर एक ही पार्टी का एकाधिकार है। यदि आप अपने साथी भारतीयों के उत्पीड़न और उनके साथ हो रही क्रूरता के समर्थन में दिलचस्पी नहीं रखते हैं तो आप कितनी भी पार्टियों को वोट दे सकते हैं। तमिलनाडु में दो पार्टियां हैं, पुरानी DMK के दोनों गुट, केरल में विभिन्न वामपंथी समूह हैं, कर्नाटक में देवेगौड़ा की जनता दल (सेक्युलर) यानी जेडीएस है, जो लेकिन शायद भारत की एकमात्र पार्टी है जो अपने नाम में सांप्रदायिकता के विरोध का ऐलान करती है।
इनके बाद आपके सामने ऐसे कई राजनीतिक गुट हैं जो कांग्रेस से अलग होकर अस्तित्व में आए हैं, लेकिन उन्होंने सरनेम वही रखा है। बंगाल में तृणमूल कांग्रेस यानी टीएमसी, महाराष्ट्र में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी यानी एनसीपी और आंध्र प्रदेश में वाईएसआरसीपी। ये सब अलग-अलग पार्टियां हैं लेकिन ब्रांड पहचान के कारण इनके नाम में कांग्रेस शब्द है। संभवतः इसलिए कि वे अपने समर्थकों को यह आश्वस्त करना चाहती हैं कि वे उनकी मूल विचारधारा मातृत्व से अलग नहीं हैं। इसके बाद राष्ट्रीय स्तर पर निश्चित रूप से कांग्रेस है।
ऐसे ही आप कश्मीर में पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी यानी पीडीपी या नेशनल कांफ्रेंस यानी एनसी को वोट दे सकते हैं (यह मानते हुए कि वहां फिर कभी चुनाव होगा) या दिल्ली में आम आदमी पार्टी यानी आप या तेलंगाना में के चंद्रशेखर राव की टीआरएस। यहां तक कि साम्प्रदायिक रूप से बनी पार्टियां, जैसेकि ऑल इंडिया मजलिस ए इत्तेहादुल मुस्लिमीन – एआईएमआईएम (इत्तेहाद का मतलब एकता होता है) या इंडियन मुस्लिम लीग के पास ऐसा एजेंडा नहीं है जो समावेशी धर्मनिरपेक्षता का विरोध करता हो।
इन सभी पार्टियों में से किसी को भी पूर्ण एकदम दुरुस्त नहीं कहा जा सकता, क्योंकि इनमें से कई का सत्ता में रहते हुए अल्पसंख्यकों को परेशान करने और उनके उत्पीड़न को रोकने में असमर्थ रहने का इतिहास है। लेकिन केवल एक पार्टी है जो सक्रिय रूप से उत्पीड़न चाहती है और यदि आप उस तरह की चीज चाहते हैं तो आपके लिए केवल एक ही पार्टी है और वह है बीजेपी। कोई अन्य पार्टी नागरिकता पर, तलाक पर, भोजन पर, अलगाव पर बहिष्करण कानूनों को आगे बढ़ाने की कोशिश नहीं करती है, जैसा कि बीजेपी ने विशेष रूप से 2019 के बाद सक्रिय रूप से किया है।
बीजेपी के अलावा कोई भी पार्टी जानबूझकर मुसलमानों को सिस्टम से बाहर नहीं करती है। बीजेपी के लोकसभा में 303 और राज्यसभा में 92 सांसद हैं, इनमें से कोई भी मुस्लिम नहीं है। इसी तरह पूरे भारत में इसके 1000 से अधिक विधायक हैं, इनमें भी एक भी मुसलमान नहीं है। यह धर्म के आधार पर समाज का सोचा-समझा विभाजन है जिसे कोई भी अन्य पार्टी अमल में नहीं लाना चाहती, भले ही राजनीतिक रूप से यह कितना ही फायदेमंद क्यों न हो।
बीजेपी कुछ मायनों में पाकिस्तान के राजनीतिक हालात में वहां की पार्टियों की तरह है। वहां सभी पार्टियां अल्पसंख्यक विरोधी हैं, भले ही अल्पसंख्यक आबादी केवल 3 प्रतिशत के आसपास ही है। 1948 में जिन्ना की मृत्यु के छह महीने बाद पाकिस्तान की संविधान सभा को बताया गया कि अल्पसंख्यकों को अपने धर्म का स्वतंत्र रूप से पालन करने का अधिकार दिया जाएगा। उन्हें बताया गया कि संविधान की धार्मिक सोच सिर्फ यह सुनिश्चित करने के लिए थी कि मुसलमान अधिक समर्पित और अनुरूप होंगे।
लेकिन ऐसा हुआ नहीं, क्योंकि इसमें कोई शक नहीं कि यह धारणा ही गलत थी कि अल्पसंख्यक पवित्र नहीं थे, और वैसे भी इस मामले में सरकार की कोई भूमिका होनी भी क्यों चाहिए। और जब इस सोच में लड़खड़ाहट आने लगी तो सबका ध्यान अल्पसंख्यकों की तरफ चला गया। कई किस्म के कानून बनाए जाने लगे ताकि अल्पसंख्यकों को राजनीतिक पदों से हटा दिया जाए और फिर उन्हें सक्रिय रूप से प्रताड़ित करने की एक श्रृंखला शुरु हुई। इस तरह के कानून बनाने का चलन 1950 के दशक के अंत में शुरू हुआ और 1980 के दशक तक यह चरम पर पहुंच गया।
हालत ऐसी हो गई कि जुल्फिकार अली भुट्टो जैसा समाजवादी भी इसी चलन का हिस्सा बन गया और संविधान में अपने दूसरे संशोधन में उन्होंने अहमदिया समुदाय को निशाना बना दिया। मुशर्रफ के शासन में व्यभिचार पर कानून को शरियत से वापस लाकर एक धर्मनिरपेक्ष दंड संहिता में लाया गया। ऐसा ही कानून भारत और बांग्लादेश में भी है। शायद यह महसूस किया गया था कि उत्पीड़न का कोई वास्तविक लाभ नहीं मिलने वाला और इससे देश और सरकार दोनों को लंबे अर्से में नुकसान ही अधिक होगा।
बांग्लादेश में संविधान की शुरुआत बिस्मिल्लाह वाली आयत के साथ शुरु होती है। लेकिन भारत की ही तरह इसका संविधान भी अपनी प्रस्तावना में धर्मनिरपेक्षता के लिए लिखित रूप में खुद को प्रतिबद्ध करता है। इसके अलावा, यह कहता है कि ‘धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत से सांप्रदायिकता, राजनीतिक उद्देश्य के लिए धर्म के दुरुपयोग और भेदभाव या उत्पीड़न को रोका जाएगा।’ बांग्लादेश भी उतना ही सत्तावादी है जितना कि भारत और वहां भी राजनीतिक विपक्ष और नागरिक समाज को समान रूप से परेशान किया जाता है।
भारतीयों को यह जानकर खुशी होगी कि वी-डेम लिबरल डेमोक्रेसी इंडेक्स में बांग्लादेश हमसे नीचे है। फ्रीडम हाउस की विश्व सूचकांक में स्वतंत्रता पर भी बांग्लादेश भारत से पीछे है और दोनों देश ‘आंशिक रूप से स्वतंत्र’ हैं। वैसे आज की तारीख में भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश में से बांग्लादेश एकमात्र राष्ट्र है, जहां इसके प्रमुख अल्पसंख्यक समुदाय का प्रतिनिधित्व साधन चंद्र मजुमदार के जरिए मंत्रिमंडल में किया गया है।
भारत 2014 के बाद उन्हीं सब पहलुओं का प्रयोग कर रहा है, जिन्हें पाकिस्तान ने अपने शुरुआती दशकों में आजमाया और नाकाम रहा। हालांकि हाल के दिनों में भारत की आर्थिक उपलब्धियों का खुलकर बखान होता है, लेकिन यह जानना एक तरह से शिक्षाप्रद होगा कि पाकिस्तान ने 1960 के दशक में कई बार 10 प्रतिशत की वृद्धि को छुआ था। राजनीतिक वैज्ञानिक हंटिंगटन (‘सभ्यताओं के संघर्ष’ के लिए मशहूर) ने अय्यूब खान की तुलना ग्रीक कानूनविदों सोलन और लाइकर्गस से की है।
यहां मुद्दा यह है कि आर्थिक विकास, कुछ वक्त के लिए तो बहिष्करण की राजनीति के साथ-साथ चल सकता है। लेकिन बहुत लम्बे समय के लिए नहीं। आज के दौर की ऐसी सरकारें तो नीतियों और कानून के जरिए अपने ही नागरिकों का उत्पीड़ कर रही हैं और उन्हें लगातार निशाना बना रही हैं और उन्मादी भीड़ और हिंसक लोगों को बढ़ावा दे रही हैं, उनकी कामयाबी के रिकॉर्ड इतिहास में नहीं मिलते।
शायद यही कारण है या कम से कम एक कारण है कि भारत के राजनीतिक दल एक विचारधारा के रूप में इससे दूर रहे हैं, भले ही यह चुनावी रूप से फायदेमंद हो। सभी पार्टियां इस सबसे दूर हैं, बस एक पार्टी को छोड़कर…
नवजीवन से साभार। …