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व्यंग्य – जब चुनाव आते हैं

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चुनाव में सबसे ज़्यादा विकास ज़बान का होता है। ज़बान पर तीखी मिर्चें उगा ली जाती हैं। प्रतियोगिता होने लगती है कि कैसे बेहतर से बेहतर कड़वे, नए स्वाद के ज़हर में लिपटे शब्दों में अपने विरोधियों को कोसा जाए। जो नेता खूब आग उगलता है उसे महागुरु मान लिया जाता है।

चुनाव आते हैं तो सिखाते हैं। इंसान जितना सीखता जाता है वह उतना ही गुरु होता जाता है। चुनाव जीतने वाले गुरु हो जाते हैं बाकियों को चेले बना रहना पड़ता है। कई गुरु गुड़ हो जाते हैं और अपने चेलों को शक्कर बनाकर साथ रखते हैं। चुनाव इंसानी व्यवहार को विकसित करता है। इंसान के बनावटी व्यवहार की तुलना जानवरों के नैसर्गिक व्यवहार से की जाती है। जानवरों को बुरा तो लगता होगा कि उनकी तुलना सामाजिक जानवरों के व्यवहार से की जा रही है।

चुनाव में सबसे ज़्यादा विकास ज़बान का होता है। ज़बान पर तीखी मिर्चें उगा ली जाती हैं। प्रतियोगिता होने लगती है कि कैसे बेहतर से बेहतर कड़वे, नए स्वाद के ज़हर में लिपटे शब्दों में अपने विरोधियों को कोसा जाए। जो नेता खूब आग उगलता है उसे महागुरु मान लिया जाता है। उनके सच्चे व पक्के भक्त संजीदगी से ज़बान जलाना सीखकर राजनीतिक व्यवहार का स्तर ऊंचा करते जाते हैं। बड़बोलेपन का गहन प्रशिक्षण लिया और दिया जाता है। कपड़ों को भी राजनीति का हिस्सा बनाया जा सकता है। कपड़े और कपड़ों का रंग राजनीति के रेफरी बन जाते हैं। अब रंग, बदरंग, ढंग और बेढंग राजनीति के कब्ज़े में है।  चुनाव आते ही प्रेरणा मिलती है कि कुछ हासिल करने के लिए, चतुरता में लिपटे झूठ बोलना, स्वांग निरंतर रचाते रहना ज़रूरी है। इस दौरान वायदे पिलाना, आश्वासन खिलाना, खुली आंख ख़्वाब दिखाना प्रचलन में रहता है। नागरिक मानना शुरू कर देते हैं कि क़ानून, नियम और अनुशासन तो तोड़ने के लिए ही होते हैं।

चुनाव में उपहार देने और लेने की पारम्परिक संस्कृति परवान चढ़ती है। सार्वजनिक प्रेरणा मिलती है कि काम करवाने के लिए ऐसा करने में अच्छाई है। इस तरह बाज़ार भी बहुत खुश होता है। भाषण सुनने आई सशुल्क भीड़ में शामिल रहो तो किसी भी बीमारी से निबटने के लिए रोग प्रतिरोधक शक्ति बढ़ जाती है। सम्प्रदाय, क्षेत्र, जाति और धर्म बारे खुलकर दीक्षा दी जाती है कि यह सभी चीज़ें बेहद ज़रूरी, स्वादिष्ट और बेहद टिकाऊ हैं। अधिकांश बंदे धार्मिक हों न हों धार्मिक दिखना शुरू हो जाते हैं और उनका अगला जन्म भी सुधरने लगता है। वह अलग बात हैं इन दिनों आध्यात्म वृक्षों पर चढ़कर सो जाता है। चुनाव के प्रेरक मौसम में छुटभैये नेता भी खुद को लोकप्रिय व सामाजिक सौहार्द के ठेकेदार समझने की कोशिश करते हैं। मिलने वाली सत्ता पर सिर्फ अपना हक़ होने के संकल्प समारोह के दौरान बंदा मुफ्त में भोजन खाना और दिए हुए परिधान पहनना भी सीख लेता है।

यह बात चुनावों के दिनों में भी पता नहीं चलती कि कहीं न कहीं चुनाव होते रहने के बावजूद भी जनता खुलकर वोट क्यूं नहीं देती। क्या इससे यही साबित होता है कि इतने दशकों में भी राजनीति, आम लोगों को सही नुमायंदा चुनने के लिए संस्कारित नहीं कर पाई। जब चुनाव आते हैं तो लोकतंत्र, बापू के तीनों बंदरों को, खून से रंगे सूखे कंटीले वृक्षों पर लटका देता है। यह वही बंदर हैं जो, बुरा मत देखो, बुरा मत कहो और बुरा मत सुनो का संदेश बार बार देते रहे मगर राजनीति ने उनका, काम तमाम करवा डाला। चुनाव आते हैं तो समझा कर जाते हैं, ‘बुरा चुपके से देखो और चुप रहो, बुरा सुन लो अगर आपको बुरा नहीं कहा तो हंसकर टाल दो, किसी को बुरा कहने से पीछे मत हटो बलिक सफल रहने के लिए बुरे की नई बदतर किस्में ईजाद करो।’संतोष उत्सुक।प्रभा साक्छी