शिव निर्विकार हैं, उनकी बांहें खुली हुई हैं, जिसमें जीव जगत के सभी प्राणियों के लिए जगह है। वे कैलाशपति हैं, प्रकृति में रची- बसी अनुभूति हैं। शिव तमाम तरह के वैभव से मुक्त हैं, नदी-पहाड़-झरना, पेड़-पालव आदि के सहचर हैं।
मन कभी-कभी आध्यात्मिक हो जाता है तो निकल पड़ता है अनंत की यात्रा पर अपने आराध्य की खोज में। सारे ब्रह्मांड में घूमता है। जाकर वहां रुक सा जाता है जहां सफेद और बर्फीली पहाड़ियां हैं, खुला आसमान है, कंदराएँ हैं, शिलाएं हैं, जहां किसी आदियोगी के होने की संभावना प्रबल है।
ऐसा महायोगी जो रात के चेहरे पर भभूत मल देता है, श्मशान को खेल का मैदान समझता है और देह से मुक्त हुई आत्माओं- प्रेतात्माओं को साथी खिलाड़ी। जिसकी जटाओं में नदियां हैं। जिसने अपने भाल पर चंद्रमा को टिका रखा है। जहां प्रकृति के सारे विरोधी, कमजोर और वंचित साम्य भाव में होते हैं। जहां बाघ और बकरी एक ही घाट पर पानी पीते है
बर्फीली पहाड़ियों के शिलाओं पर ध्यान मुद्रा में बैठे शिव के यहां कोई दरबार नहीं लगता, सभी एकमेव स्थिति में रहते हैं, यहां तक कि विरोधी भी। शिव किसी बंधी बधाई मान्यताओं की डोर थामे नहीं चलते, बल्कि उन सभी का उल्लंघन करते हुए एक नई दुनिया रचते हैं। श्मशान में शिव प्रेतों के साथी हैं, जली हुई चिताओं की राख उनके लिए होली का रंग है जो वे खुद के और पिशाचों के चेहरे पर मल देते हैं, जंगल में वे विषैले सांप- बिच्छुओं के अगुआ हैं।
नीलकंठ गरल पीकर भी इतने सरल हैं कि सर्प को गले में लपेट रखा है। शिव निष्कपट हैं इसलिए क्रोधी भी हैं। लेकिन उनका क्रोध अन्याय और विषमता के विरुद्ध है क्योंकि वे समता भाव से भरे हुए हैं। छल-छद्म रहित हृदय में क्रोध अपनी स्वाभाविक और आवश्यक मात्रा में उसी रूप में रहता है जितनी कि प्रसन्नता।