दिल्ली के चांदनी चौक से विधायक अलका लांबा ने आम आदमी पार्टी की प्राथमिक सदस्यता से इस्तीफ़ा दिया और कांग्रेस में शामिल हो गई हैं.
उन्होंने एक ट्वीट में अपने इस इस्तीफ़े की घोषणा की.
उनके इस्तीफ़े के कारण स्पष्ट हैं कि पिछले कई महीने से वो लगातार पार्टी से दूर हैं. उन्होंने राजीव गांधी के एक मसले पर भी अपनी असहमति दर्ज की थी.
उनकी बातों से यह भी समझ आता था कि वो कम से कम आम आदमी पार्टी से जुड़ी नहीं रह पाएंगी, फिर सवाल उठता है कि वो कहां जातीं, तो कांग्रेस पार्टी एक बेहतर विकल्प था, क्योंकि वो वहां से ही आई थीं.
उनकी कांग्रेस में स्वाभाविक वापसी संभव थी. इसका एक संकेत यह भी है कि चुनाव होने वाले हैं और वो पार्टी से पुरानी दिल्ली की किसी सीट से चुनाव लड़ सकती हैं.
अलका लांबा के अलावा आशीष खेतान, कुमार विश्वास, आशुतोष, कपिल मिश्रा, योगेंद्र यादव, प्रशांत भूषण, शाजिया इल्मी जैसे जाने-माने चेहरों ने आम आदमी पार्टी को अलविदा कह दिया है.
किसी ने कांग्रेस की सदस्यता ले ली है तो किसी ने भाजपा की तो किसी ने राजनीति को अलविदा कह दिया है.
ये सभी पार्टी की शुरुआत के जाने-माने चेहरे थे. राजनीतिक गलियारों में यह भी कहासुनी होती है कि ये सभी एकजुट हो जाते तो एक पार्टी का गठन कर सकते थे.
योगेंद्र यादव ने एक पार्टी का गठन किया भी है. अन्ना आंदोलन के दौरान किरण बेदी भी अरविंद केजरीवाल की सहयोगी हुआ करती थीं.
ये सभी वैचारिक स्तर पर एकजुट हुए थे. पार्टी के रूप शायद यह एक प्रयोग था जिसके पहले ही साल में मतभेद सामने आने लगे थे.
इस पार्टी की बुनियाद एक आंदोलन के रूप में, साफ-सुथरी राजनीति और भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ था. जब यह सत्ताधारी राजनीति के दायरे में आई तो सबकुछ बदलता चला गया.
मेरी समझ से यह एक दुहस्वप्न के रूप में ही रहा कि जिस चीज को लेकर राजनेताओं, कार्यकर्ताओं और जनता में बड़ा उत्साह था, वो सब निराश हुए.
अरविंद केजरीवाल अकेले क्या कर पाएंगे
आम आदमी पार्टी के शुरुआती और अब के स्वरूप में बहुत अंतर है. अरविंद केजरीवाल पार्टी में करीब-करीब अकेले पड़ गए हैं.
2013 और 2015 के चुनावों में आम आदमी पार्टी को जबरदस्त बढ़त मिली. पार्टी बहुमत के साथ सत्ता में आई.
उसके बाद लगता नहीं है कि जनता का विश्वास पार्टी के प्रति बहुत अधिक दिखा. पार्टी ने ग़रीब और आम लोगों के लिए बहुत सारे काम किए, ख़ासकर शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में.
ग़रीब और पिछड़े लोगों के लिए लोकलुभावन योजनाओं की राजनीति हमारे देश में दूसरी पार्टियां भी करती आई हैं. लेकिन मुझे नहीं लगता है कि आम आदमी पार्टी फिलहाल किसी विचारधारा और कार्यक्रम के साथ चल रही है.
लोकसभा चुनावों में पार्टी को शिकस्त का सामना करना पड़ा. ऐसे में कहा जा सकता है कि पार्टी पहले की तुलना में कमजोर हुई है और अरविंद केजरीवाल के सामने वो सबकुछ अकेले करने की चुनौती है जो पिछले चुनावों में कई लोग मिलकर कर रहे थे.
निरंतरता
आम आदमी पार्टी ने दिल्ली में जिस राजनीति की शुरुआत की थी, वो स्थानीय और क्षेत्रीय समस्याओं से निकल कर राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय समस्याओं तक पहुंची थी.
एक समय तो ऐसा लग रहा था कि आम आदमी पार्टी के नेता देश को बदल देने का सपना लेकर मैदान में आए हैं और बहुत तेज़ी से वे दिल्ली से निकल कर पूरे देश की राजनीति में हस्तक्षेप करेंगे.
लेकिन यह सबकुछ जल्दबाजी में हुआ. पांच सालों में पार्टी एक आम राजनीतिक पार्टी की तरह काम करने लगी. अंदरुनी मतभेद बढ़ने लगे.
पद और कुर्सी की लड़ाई तेज़ हुई. जिस मुद्दे और आंदोलन की राजनीति को लेकर पार्टी चली थी, उसमें निरंतरता बनी नहीं रह पाई.