लखनऊ – उत्तर प्रदेश के संभल में 1978 में हुए सांप्रदायिक दंगों की फाइलें एक बार फिर से सुर्खियों में हैं। योगी सरकार के आदेश पर मुरादाबाद मंडल में इन फाइलों को खंगाला जा रहा है। इन दंगों में हिंदुओं का बड़ा नरसंहार हुआ था।
सैकड़ों परिवारों को अपना घर-बार छोड़कर पलायन करना पड़ा। वीरान मंदिर, उजड़े हुए कुएँ, और खंडहर बन चुके मकान आज भी उस काले अध्याय की गवाही देते हैं।
30 मार्च 1978 को संभल, जो तब मुरादाबाद जिले का हिस्सा था, सांप्रदायिक दंगों की आग में जल उठा। हिंदू आबादी पर हिंसक हमले किए गए, उनके घर जलाए गए और निर्दोष लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया। ये घटनाएँ इतनी भयावह थीं कि इलाके से हिंदुओं का पूरी तरह पलायन हो गया। उस समय पुलिस ने 16 मुकदमे दर्ज किए थे, लेकिन इनमें से किसी भी मामले में दोषियों को सजा नहीं मिली। 1993 में समाजवादी पार्टी की सरकार, जिसमें मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री थे, ने इन दंगों से जुड़े आठ मुकदमों को वापस लेने का निर्णय लिया। सूत्रों के अनुसार, यह फैसला सपा नेता आजम खान और पूर्व सांसद डॉ. शफीकुर्रहमान बर्क के दबाव में लिया गया था। उस समय न्याय विभाग के विशेष सचिव आर.डी. शुक्ला ने मुरादाबाद के जिलाधिकारी को पत्र लिखकर मुकदमे वापस लेने के आदेश दिए थे।
इसका नतीजा यह हुआ कि दंगों के गवाहों को न्याय नहीं मिला। अधिकतर गवाह होस्टाइल हो गए, जबकि पीड़ित परिवार डर के कारण अन्य शहरों में पलायन कर गए। पुलिस और जांच एजेंसियों ने भी मामलों की फाइलों को ठंडे बस्ते में डाल दिया। संभल के पुराने हिस्से में आज भी उजड़े मंदिर, वीरान कुएँ और खंडहर बन चुके मकान उस नरसंहार की गवाही देते हैं। ये स्थल उन हिंदू परिवारों की याद दिलाते हैं, जिनके घर जलाए गए और जो खुद इस्लामिक कट्टरपंथ की हिंसा का शिकार बने।
हाल ही में मुरादाबाद प्रशासन ने इन मामलों की फाइलें खंगालनी शुरू की हैं। अब तक 10 मामलों की फाइलें बरामद हो चुकी हैं, जिनमें “राज्य बनाम रिजवान,” “राज्य बनाम मुनाजिर,” और “राज्य बनाम वाजिद” जैसे केस शामिल हैं। इन पर हत्या, डकैती, आगजनी, और सामूहिक हिंसा के तहत मामले दर्ज हुए थे। लेकिन जांच में खुलासा हुआ कि कई मामलों में अधिकारियों ने गवाही तक दर्ज नहीं की और सिर्फ एकतरफा बयानों के आधार पर केस बंद कर दिए।
इस पूरे मामले में सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि जिन नेताओं ने दंगाइयों के खिलाफ कार्रवाई करने की जगह उन्हें बचाने का काम किया, वे आज भी खुद को “सेक्युलर” कहने से नहीं हिचकते। मुलायम सिंह यादव और उनकी सरकार ने वोट बैंक की राजनीति के तहत हिंदुओं के नरसंहार को दबा दिया और पीड़ितों को न्याय दिलाने की बजाय दोषियों का बचाव किया। अगर यह नरसंहार किसी और समुदाय से जुड़ा होता, तो क्या तत्कालीन सरकार का यही रवैया होता? क्या आज के सेक्युलर नेता तब भी चुप रहते? इन सवालों का जवाब आसान नहीं है, लेकिन यह जरूर दिखाता है कि कैसे हिंदू समुदाय को वोट बैंक की राजनीति में बार-बार निशाना बनाया गया।
योगी सरकार ने इस मामले की फाइलें फिर से खोलने का निर्णय लिया है। 1978 के दंगों से जुड़े दो गवाह और चार आरोपी आज भी जिंदा हैं। प्रशासन अब इनसे पूछताछ की तैयारी कर रहा है। उम्मीद है कि इस पहल से हिंदू परिवारों को न्याय मिलेगा और सच्चाई सामने आएगी। यह सिर्फ एक इतिहास की घटना नहीं, बल्कि एक उदाहरण है कि कैसे वोट बैंक की राजनीति ने हिंदुओं के दर्द को नजरअंदाज किया और उनके नरसंहार को छिपाने की कोशिश की। अब समय आ गया है कि इस अन्याय को समाप्त किया जाए और दोषियों को सजा मिले।