उच्चतम न्यायालय ने एक अहम फैसले में कहा है कि राज्य को सरकारी नौकरियों में आरक्षण देने के लिए अनुसूचित जातियों का उप-वर्गीकरण करने का हक है। इसी दौरान जस्टिस गवई ने क्रीमी लेयर के बारे में 281 पेज का फैसला लिखा है। जिस पर तीन अन्य जजों विक्रमनाथ, पंकज मिथल और सतीश चन्द्र शर्मा ने अपनी सहमति जताई है।
नई दिल्ली – देश की सबसे बड़ी अदालत ने बीते दिन अनुसूचित जातियों के आरक्षण में उप-वर्गीकरण का फैसला सुनाया। सर्वोच्च अदालत की संविधान पीठ ने 6:1 के बहुमत से सुनाए ऐतिहासिक फैसले में अनुसूचित जातियों के लिए तय आरक्षण में उप-वर्गीकरण की अनुमति दे दी है। इससे अब तक पूरी तरह हाशिये पर रहे समूहों को व्यापक फायदा मिलेगा। फैसले की सुनवाई में हिस्सा रहे जस्टिस गवई ने कहा कि राज्यों को एससी, एसटी में क्रीमी लेयर की पहचान करनी चाहिए।
उच्चतम न्यायालय के सात न्यायधीशों की संविधान पीठ ने अपने फैसले में कहा है कि राज्य को सरकारी नौकरियों में आरक्षण देने के लिए अनुसूचित जातियों का उप-वर्गीकरण करने का अधिकार है। फैसले का मतलब है कि राज्य एससी श्रेणियों के बीच अधिक पिछड़े लोगों की पहचान कर सकते हैं और कोटे के भीतर अलग कोटा के लिए उन्हें उप-वर्गीकृत कर सकते हैं।
यह फैसला भारत के प्रधान न्यायाधीश (सीजेआई) डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली सात सदस्यीय संविधान पीठ ने सुनाया है। इसके जरिए 2004 में ईवी चिन्नैया मामले में दिए गए पांच जजों के फैसले को पलट दिया। बता दें कि 2004 के निर्णय में कहा गया था कि एससी/एसटी में उप-वर्गीकरण नहीं किया जा सकता है।
इस मामले की सुनवाई में सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस बीआर गवई, जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस बेला एम त्रिवेदी, जस्टिस पंकज मिथल, जस्टिस मनोज मिश्रा और जस्टिस सतीश चंद्र शर्मा शामिल रहे। पीठ ने इस मामले पर तीन दिनों तक सुनवाई की थी और बाद 8 फरवरी, 2024 को अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था। पीठ 23 याचिकाओं पर सुनवाई कर रही थी, जिनमें से मुख्य याचिका पंजाब सरकार ने दायर की थी। इस याचिका में पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के 2010 के फैसले को चुनौती दी गई थी।
फैसले के दौरान हुई बहस से जो मुख्य बिंदु सामने आए हैं उनमें से एक यह भी है कि अदालत ने एससी-एसटी में क्रीमी लेयर की आवश्यकता पर जोर दिया है। कई जजों ने न्यायालय ने अनुसूचित जातियों के भीतर ‘क्रीमी लेयर’ को अनुसूचित जाति श्रेणियों के लिए निर्धारित आरक्षण लाभों से बाहर रखने की पर राय रखी। वर्तमान में, यह व्यवस्था अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के लिए आरक्षण पर लागू होती है।
मुख्य रूप से न्यायमूर्ति बीआर गवई ने कहा कि राज्यों को एससी, एसटी में क्रीमी लेयर की पहचान करनी चाहिए और उन्हें आरक्षण के दायरे से बाहर करना चाहिए। बता दें कि चार न्यायाधीशों ने अपने-अपने फैसले लिखे जबकि न्यायमूर्ति गवई ने अलग फैसला दिया।
जस्टिस सतीश चंद्र शर्मा ने कहा कि पहले के न्यायाधीश ही नहीं बल्कि भूतपूर्व प्रधानमंत्री भी किसी वर्ग या जाति के लोगों को विशुद्ध रूप से जाति के आधार पर आरक्षण देने के खिलाफ दिखाई दिए और देश को योग्यता के आधार पर आगे ले जाना चाहते थे। इन विचारों के बावजूद, संविधान संशोधनों में दलित और पिछड़े वर्गों के लोगों को बढ़ावा देने की परिकल्पना की गई थी ताकि उन्हें बराबर स्तर पर लाया जा सके। इस प्रकार आरक्षण नीति सही ढंग से लागू की गई।
जस्टिस सतीश ने कहा कि चूंकि आरक्षण के कार्यान्वयन में कठिनाइयों का सामना करना पड़ा क्योंकि पिछड़े वर्गों में से कुछ आगे बढ़ गए। इसलिए पिछड़े वर्ग के पिछड़े लोगों का उत्थान करना अनिवार्य हो गया, जिसके लिए उप-वर्गीकरण का फैसला दिया गया है।
न्यायमूर्ति गवई ने क्रीमी लेयर के पक्ष में अपनी राय रखते हुए एक उदाहरण दिया। उन्होंने कहा कि पिछड़े वर्ग का एक व्यक्ति आईएएस या आईपीएस या अखिल भारतीय सेवा का कोई अन्य अधिकारी बन जाता है और समाज में उसकी स्थिति सुधर जाती है लेकिन फिर भी उसके बच्चों को आरक्षण का पूरा लाभ मिलता है।
जस्टिस सतीश ने कहा कि इसमें कोई संदेह नहीं है कि यदि किसी विशेष जाति/वर्ग के कुछ लोग समाज में आगे बढ़ते हैं तो पूरी जाति या वर्ग पिछड़ा नहीं रह जाएगा। फिर भी यदि पिछड़े वर्ग का कोई व्यक्ति अगड़े वर्ग के बराबर आ जाता है, तो यह समझना कठिन है कि उसके बच्चों को सामाजिक, आर्थिक या शैक्षणिक रूप से किसी भी तरह से वंचित, दलित या पिछड़ा कैसे माना जाएगा। इसलिए, जिस जाति का वह व्यक्ति है, उसे आरक्षण के लाभ से पूरी तरह से बाहर नहीं रखा जा सकता है। लेकिन निश्चित रूप से जिस परिवार ने एक बार लाभ ले लिया है, उसे अगली पीढ़ी में आरक्षण का लाभ लेने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। ऐसे परिवारों को आरक्षण केवल एक पीढ़ी तक ही सीमित रखना होगा।
न्यायमूर्ति गवई ने अपनी राय में कहा कि न्यायमूर्ति कृष्ण अय्यर ने एनएम थॉमस (सुप्रा) में बार-बार कहा है कि राज्य को एससी/एसटी के सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक रूप से आगे बढ़ चुके वर्गों को आरक्षण के दायरे से बाहर करने के लिए कदम उठाने का अधिकार है। यह कहा गया कि सेंट स्टीफंस कॉलेज (दिल्ली विश्विद्यालय का कॉलेज) या किसी अच्छे शहरी कॉलेज में पढ़ने वाले बच्चे की तुलना ग्रामीण स्कूल या कॉलेज में पढ़ने वाले बच्चे से नहीं की जा सकती और उसे एक ही श्रेणी में नहीं रखा जा सकता।
न्यायमूर्ति गवई ने कहा कि राज्य को एससी और एसटी में से भी क्रीमी लेयर की पहचान करने की नीति बनानी चाहिए ताकि उन्हें आरक्षण के लाभ से बाहर रखा जा सके।
जस्टिस सतीश ने कहा कि संविधान के तहत और इसके विभिन्न संशोधनों द्वारा आरक्षण की नीति को नए सिरे से देखने और एससी/एसटी/ओबीसी समुदायों के उत्थान के लिए अन्य तरीके बनाने की जरूरत है। जब तक कोई नया तरीका नहीं बनाया जाता या अपनाया नहीं जाता है, तब तक मौजूदा आरक्षण प्रणाली में उप-वर्गीकरण की अनुमति देने की शक्ति दी जाए।
इन श्रेणियों के व्यक्तियों की उत्थान के लिए कोई भी सुविधा जाति के अलावा पूरी तरह से अलग मानदंडों पर होना चाहिए। उप-वर्गीकरण की यह व्यवस्था आर्थिक स्थिति, व्यवसाय और व्यक्ति के रहने के स्थान (शहरी या ग्रामीण) के आधार पर मौजूद सुविधाओं पर आधारित हो सकती है।
जस्टिस सतीश ने कहा कि आरक्षण केवल पहली पीढ़ी या एक पीढ़ी के लिए सीमित होना चाहिए। यदि परिवार में किसी पीढ़ी ने आरक्षण का लाभ लिया है और अच्छा स्तर पा लिया है, तो आरक्षण का लाभ तार्किक रूप से दूसरी पीढ़ी को नहीं मिलना चाहिए। जस्टिस ने कहा कि आरक्षण का लाभ लेने के बाद सामान्य श्रेणी के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने वाले व्यक्ति के वर्ग को बाहर करने के लिए समय-समय पर कवायद की जानी चाहिए।
अदालत के फैसले में भी एससी/एसटी में क्रीमी लेयर लागू करने पर महज राय व्यक्त की गई है। फैसले में कहा गया कि एससी-एसटी में ‘क्रीमी लेयर’ की पहचान राज्य के लिए एक संवैधानिक अनिवार्यता बन जानी चाहिए ताकि एससी-एसटी के बीच मूलभूत समानता को पूरी तरह से पाया जा सके।
इस मसले पर हमने सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील विराग गुप्ता से बात की। इस बारे में विराग कहते हैं, ‘क्रीमी लेयर और जातियों का वर्गीकरण दो अलग मसले हैं। क्रीमी लेयर के दायरे में व्यक्ति और परिवार आते हैं जबकि उप-वर्गीकरण के दायरे में पूरी जाति आती है। इस मामले से जुड़ी अधिकांश याचिकाओं और अपीलों में कोटे में कोटा का संवैधानिक पहलू प्रमुख था। इस बारे में 2020 में सुप्रीम कोर्ट के 5 जजों के फैसले के बाद 7 जजों की संविधान पीठ का गठन हुआ। 6 जजों ने बहुमत से कोटे में कोटा निर्धारित करने के लिए राज्य सरकारों के अधिकार को स्पष्ट तौर पर पुष्ट किया है।
क्रीमी लेयर के बारे में जस्टिस गवई ने 281 पेज का फैसला लिखा है। जिस पर तीन अन्य जजों विक्रमनाथ, पंकज मिथल और सतीश चन्द्र शर्मा ने अपनी सहमति जताई है। जस्टिस मिथल के अनुसार आरक्षण की सुविधा मिलने के बाद अगली पीढ़ी को क्रीमी लेयर के दायरे में रखना चाहिए। हालांकि, क्रीमी लेयर के बारे में स्पष्ट आदेश नहीं है, लेकिन इस बारे में नीति बनाये बगैर कोटे में कोटा निर्धारित करना मुश्किल होगा।
इसके जवाब में विराग कहते हैं कि क्रीमी लेयर फॉमूर्ले को ओबीसी आरक्षण में लागू करने के लिए 1992 में इंदिरा साहनी मामले में नौ जजों की बेंच ने फैसला दिया था। उसके अनुसार एक कमेटी की रिपोर्ट के आधार पर साल-1993 में डीओपीटी विभाग ने छह श्रेणियां बनाई थीं। उस समय सालाना आमदनी की लिमिट एक लाख रुपये रखी गई थी जिसे 2017 में बढ़ाकर आठ लाख रुपये कर दिया गया है। इसे बढ़ाने के लिए साल 2019 में कमेटी बनाई गई थी, जिसकी रिपोर्ट आना बाकी है। जजों के अनुसार एससी/एसटी वर्ग में क्रीमी लेयर लागू करने के लिए ओबीसी की बजाए अलग पैमाने बनाये जा सकते हैं। राज्यों में मनमाने तरीके से क्रीमी लेयर का फार्मूला बना तो विवाद के साथ मुकदमेबाजी भी बढ़ेगी। इसलिए इस बारे में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुसार केन्द्र सरकार को पहल करने की जरुरत है।