आज से ठीक 10 साल पहले मेरे पीछे मौजूद चोराबाड़ी ग्लेशियर के ऊपर बादल फटने के कारण भयंकर बाढ़ आई थी. इस बाढ़ ने न सिर्फ मुझे क्षति पहुंचाई, बल्कि कई गांव और शहरों को तहस-नहस कर दिया था.
मैं केदारनाथ बोल रहा हूं… आज से 10 साल पहले मेरे आंगन में एक आपदा आई थी. जिसका जिम्मेदार भी मुझे ही ठहराया गया था. लेकिन ये मेरी मर्जी नहीं थी. मुझे तो एकांत चाहिए. सालों से मेरे दिल पर पत्थर तोड़े जा रहे हैं. मेरा घर हिमालय है. जिसे इंसान अपने फायदे के लिए लगातार तोड़ रहा है. मैं चुप हूं. कुछ कर नहीं पा रहा हूं, लेकिन मेरे घर को तोड़कर इसे कमाई का जरिया बनाने वाले इन इंसानों को जरा भी आभास नहीं है कि ऐसा करना न सिर्फ मेरे लिए बल्कि मेरे अंदर रह रहे लाखों लोगों के लिए विनाशकारी हो सकता है.
दरअसल आज से ठीक 10 साल पहले मेरे पीछे मौजूद चोराबाड़ी ग्लेशियर के ऊपर बादल फटा था. जिसके कारण भयंकर बाढ़ आई थी. इस बाढ़ ने न सिर्फ मुझे क्षति पहुंचाई, बल्कि कई गांव और शहरों को भी तहस-नहस कर दिया था. इस बाढ़ में लाखों की संख्या में घर और हजारों की संख्या में लोग बह गए थे. कई लोग तो ऐसे भी हैं जिनका पता आज तक नहीं चल पाया है.
यह हादसा इतना भयंकर था कि आज भी आप मेरे अंदर इसके निशान देख सकते हैं. आज भी मुझे अपनी पहाड़ों की ढलानों को देखकर वो मंजर साफ याद आ जाता है जिसने लाखों जिंदगियां बर्बाद कर दी थीं. लेकिन जो बात मुझे हताश कर देती है वो ये कि इन आपदाओं के बाद भी राज्य सरकार कोई सबक नहीं ले रही.
पिछले 10 सालों में मेरे अंदर कई आपदाएं आई. कभी भूकंप तो कभी भूस्खलन, ये प्राकृतिक आपदाएं समय के साथ बढ़ती ही जा रही है. विशेषज्ञ कहते हैं कि आने वाले कुछ सालों में मुझे और बड़ी आपदाओं का सामना करने के लिए तैयार रहना पड़ेगा. कैसे, ये जानते हैं इस खबर में…
पहले जानते हैं कहां है केदारनाथ
उत्तराखंड में स्थित गंगोत्री, यमनोत्री, केदारनाथ और बद्रीनाथ की यात्रा को चार धाम यात्रा के नाम से जाना जाता है. इन चारों धामों की धार्मिक तीर्थयात्रा के रूप में बहुत मान्यता है. इस चार धाम का पहला पड़ाव यमनोत्री है जो हिमालय की पश्चिम दिशा में उत्तरकाशी जिले में स्थित है.
हर साल श्रद्धालु चार धाम के दर्शन के लिए पहले यमनोत्री फिर गंगोत्री और फिर बद्रीनाथ और केदारनाथ जाते हैं.
दरअसल सोशल डेवलपमेंट ऑफ कम्युनिटीज फाउंडेशन ने साल 2013 में हुई त्रासदी की 10वीं बरसी पर 17 जून को उत्तरांचल प्रेस क्लब, देहरादून में विशेषज्ञ पैनलिस्टों के साथ बैठक की थी. जिसमें पैनलिस्टों ने कहा कि हिमालय की संवेदनशील पारिस्थितिकी को समझे बिना इस तीर्थ स्थल पर पर्यटन और निर्माण को बड़े पैमाने पर बढ़ावा देने से आपदाएं बढ़ रही हैं. इन्हें रोकने के लिए मानसिकता में बदलाव की जरूरत है.
उस बैठक में कहा गया, ‘साल 2013 के एक सर्वे में पाया गया कि बादल फटने की घटना से पहले केदार घाटी में सिर्फ 25,000 तीर्थयात्रियों के रहने लायक आवास थे, लेकिन 17 जून की रात इसी घाटी में 40,000 तीर्थयात्री मौजूद थे. जिसके कारण ज्यादा लोगों की मौत हुई.’
2013 में आई बाढ़ से पहले ये कहा जाता था कि केदारनाथ जाने वाली सड़कों का इस्तेमाल सभी मौसम में किया जा सकता है, इन्हें ‘ऑल वेदर रोड’ कहकर खूब प्रचारित किया गया. लेकिन हिमालयी क्षेत्रों में बरसात के मौसम में अक्सर पहाड़ों के दरकने से सड़कें टूट जाती हैं और रास्ते बंद हो जाते हैं. यह समस्या सड़क की नहीं, पहाड़ों की भी है.
अब अधिकारियों ने सड़कों के लिए इस नाम का इस्तेमाल करना बंद कर दिया है और चारधाम मार्ग परियोजना की शुरुआत की गई. अब आप केदारनाथ जाएंगे तो पाएंगे की रास्ते में जगह-जगह चारधाम मार्ग परियोजना के बोर्ड लगाए गए हैं. क्योंकि उच्च हिमालयी क्षेत्र में सीधे 12 महीने आवागमन संभव नहीं है. वैज्ञानिकों ने इस बारे में 2013 में आई आपदा से पहले ही चेतावनी दे दी थी, लेकिन सरकार ने इस पर ध्यान नहीं दिया था.
साल 2013 में आई आपदा के लिए कौन जिम्मेदार
वरिष्ठ पत्रकार और केदारनाथ आपदा पर ‘तुम चुप क्यों रहे केदार’ पुस्तक के लेखक हृदयेश जोशी ने ‘डाउन टू अर्थ’ की एक रिपोर्ट में कहा कि केदारनाथ में आई आपदा के 10 साल हो गए हैं, अब मार्मिक कहानियां लिखने का समय नहीं बचा है. हमें इसके लिए सीधे जिम्मेदार लोगों को दोषी ठहराना चाहिए.
हृदयेश जोशी आगे कहते हैं आपदा के 10 साल बाद भी यहां की हालत ज्यों की त्यों बनी हुई है. हिमालय अभी भी सीमेंट और लोहे से ढका हुआ है. सड़क बनाने का काम कुछ चुनिंदा ठेकेदारों को ही दिया जाता है. वैज्ञानिकों की राय के विपरीत काम किया जाता है.
उन्होंने कहा कि हमें चौड़ी सड़कों के बजाय टिकाऊ सड़कों पर भी जोर देना चाहिए. लोग अपने गांवों में सड़कें मांग रहे हैं, लेकिन हम यात्री सुविधा और सामरिक महत्व के नाम पर पहले से बनी सड़कों को अनावश्यक रूप से चौड़ा कर रहे हैं.
कहां चूक रही सरकार
विशेषज्ञ कहते हैं, ‘सरकार के पास सड़कें बनाने के लिए तो बजट है, लेकिन कटाव के कारण पहाड़ पर बनी ढलान को स्थिर करने के लिए कोई बजट नहीं है. यही कारण है कि ऐसी सड़कों पर साल भर भूस्खलन होता रहता है.’
कुछ भूवैज्ञानिकों ने चार धाम मार्ग पर एक सर्वे किया था. जिसमें पाया गया कि इन हाईवे पर कई नए भूस्खलन क्षेत्र बने थे और कई आगे भी बन सकते हैं. रिपोर्ट सरकार को सौंपी गई लेकिन सरकार ने इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी.
अर्ली वार्निंग सिस्टम से मिल रही मदद
विशेषज्ञ कहते हैं कि तटीय इलाकों के अर्ली वार्निंग सिस्टम बेहतर होने के कारण बिपरजॉय जैसे चक्रवात के बावजूद नुकसान कम हुआ है, लेकिन हिमालय में अब तक वैसा कोई भी वार्निंग सिस्टम विकसित नहीं हो पाया है.
साल 2013 में आई आपदा ने बदल दिया केदारनाथ का भूगोल
बाढ़ के बाद भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग का एक उच्चस्तरीय दल वहां का निरीक्षण करने पहुंचा था. उनकी रिपोर्ट के मुताबिक इस आपदा ने केदारनाथ का भूगोल बदल कर रख दिया है. इतना ही नहीं मंदिर परिसर को भी भारी क्षति पहुंची है.
बीबीसी की एक रिपोर्ट के अनुसार भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के अधिशासी पुरातत्ववेत्ता अतुल भार्गव ने कहा, “बाढ़ आने से मंदिर के मंडप का भाग पूरी तरह क्षतिग्रस्त हो गया था, इस बाढ़ ने पूर्वी द्वार के पास स्तंभ को भी काफी नुकसान पहुंचाया था, जहां से पत्थर हट गये हैं. इसके अलावा पश्चिमी द्वार को भी नुकसान हुआ है और गर्भगृह के उत्तर पूर्वी कोने से भी नीचे के पत्थर हट गए हैं.”
इस खबर से ये तो साफ हो चुका है कि अगर आने वाले सालों में इंसान नहीं संभलते हैं और पत्थर काटकर सड़क बनाने जैसी गतिविधि पर काबू नहीं पाते हैं तो ऐसा भी मुमकिन है कि बार बार हो रहे भूस्खलन के कारण समूचे क्षेत्र के तीर्थ लुप्त हो जाएं. पौराणिक कथाओं के अनुसार ऐसा माना जाता है कि जिस दिन नर और नारायण पर्वत आपस में मिल जाएंगे, उस दिन बद्रीनाथ धाम और केदारेश्वर धाम लुप्त हो जाएंगे.