हिंदी के शीर्षस्थ कवि, कहानीकार, उपन्यासकार विनोद कुमार शुक्ल को पेन अमेरिका व्लादिमीर नाबाकोव अवार्ड फॉर अचीवमेंट इन इंटरनेशनल लिटरेचर-2023 से सम्मानित किया जाएगा।
रायपुर/नई दिल्ली – हिंदी के अप्रतिम कवि-लेखक विनोद कुमार शुक्ल को अमेरिका का पेन/नेबाकोव अवार्ड घोषित किया गया है। इस अवार्ड को अमेरिका में साहित्य का ऑस्कर सम्मान समझा जाता है। गीतांजलि श्री के बुकर के बाद यह हिंदी को मिला अंतरराष्ट्रीय स्तर पर दूसरा बड़ा सम्मान है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इससे पहले अज्ञेय और निर्मल वर्मा जैसे दूसरे लेखकों ने अपनी जो पहचान कायम की थी, वह अब अगले दौर में पहुंच चुकी है।
विनोद कुमार शुक्ल हिंदी के महत्वपूर्ण कवि, कथाकार और उपन्यासकार हैं। उनकी कविता और उनके लेखन में भारतीय मध्य वर्ग की विडंबनाओं का सरल भाषा में वर्णन है। उनके पहले उपन्यास ‘नौकर की कमीज’ ने दशकों पहले एक नए तरह के गद्य का स्वाद परिचित कराया। नौकर की कमीज पर प्रख्यात फिल्मकार मणि कौल ने इसी नाम से एक यादगार कला फिल्म भी बनाई थी। उनके पूरे कथा साहित्य में साधारण मनुष्य की मटमैली दिनचर्या धूप-छांव की तरह लहराती रहती है। वह भारतीय मध्यवर्ग के मनुष्य का जैसे महाकाव्य लिख रहे हों। उनके गद्य और पद्य, दोनों में यह बात नजर आती है। इस महत्वपूर्ण अंतरराष्ट्रीय सम्मान के लिए उनका चयन करते हुए ज्यूरी ने लिखा, ‘विनोद कुमार शुक्ल का गद्य और कविता एक सटीक और दुर्लभ ऑब्जर्वेशन है। उनकी कविताओं का स्वर गहरी मेधा से परिपूर्ण और स्वप्निल आश्चर्यों से भरा हुआ है।’ बरसों तक हिंदी में विनोद कुमार शुक्ल की उपेक्षा हुई। उनकी अनदेखी की गई, उन्हें जो महत्व मिलना चाहिए था, वह नहीं मिला। लेकिन इससे बेपरवाह विनोद कुमार शुक्ल धीमी गति से अपनी राह पर चलते रहे और उन्होंने आधुनिकता को देखने का नजरिया पूरी तरह बदल दिया।
पेन/नेबाकोव पुरस्कार अंतरराष्ट्रीय साहित्य में पहचान बनाने वाले उन साहित्यकारों को दिया जाता है, जो अपनी परंपराओं, आधुनिकता, वर्तमान और इतिहास को नई अंतरदृष्टि से देखते हैं। विनोद कुमार शुक्ल का पहला कविता संग्रह- ‘वह आदमी नया गर्म कोट पहनकर चला गया विचार की तरह’ ने हिंदी कविता के पाठकों को एक नई सर्जनात्मक भाषा और रोजमर्रा के ओझल हो जाने वाले अनुभवों से रूबरू करवाया। उनकी अन्य कविता की किताबें हैं- कभी के बाद अभी, कविता से लंबी कविता, सब कुछ होना बचा रहेगा। ‘नौकर की कमीज’ के अलावा उनके अन्य उपन्यास ‘खिलेगा तो देखेंगे’ और ‘महाविद्यालय’ हैं, जो हमें गद्य के नए आस्वाद से परिचित कराते हैं। विनोद कुमार शुक्ल ने बच्चों के लिए भी महत्वपूर्ण लेखन किया है। बच्चों के लिए उनका उपन्यास- ‘हरी घास की छप्पर वाली झोपड़ी और बौना पहाड़’ है, जिसका आनंद बड़े भी ले सकते हैं।
पिछले दिनों रॉयल्टी विवाद से चर्चा में आए विनोद कुमार शुक्ल को क्या पता था कि कुछ दिनों बाद ही उन्हें पचास हजार डॉलर के प्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार से नवाजा जाएगा! इसे संयोग ही समझना चाहिए कि उन्हें इस पुरस्कार की घोषणा से पहले उनके प्रकाशक ने उनकी सभी कृतियों के नए संस्करण प्रकाशित किए हैं, जो इस पुस्तक मेले में लोकार्पित किए गए हैं। इसे काव्यात्मक न्याय कहना, मतलब पोएटिक जस्टिस कहना ही ठीक है। विनोद कुमार शुक्ल हिंदी के वरिष्ठतम लेखकों में से हैं, जो छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में रहते हैं। उनके सारे साहित्य में आदिवासी इलाके की धूल, चिड़ियों की आवाज, पेड़ के पत्तों की कंपकपाहट और साधारण मनुष्य के दुख कदम-कदम पर परिलक्षित होते हैं। यह उल्लेखनीय है कि विनोद कुमार शुक्ल हिंदी साहित्य की परंपरा से जुड़ते भी हैं और एक नई राह का संधान भी करते हैं। विनोद कुमार शुक्ल का पूरा साहित्य एक धूल भरी पगडंडी की तरह दिखाई देता है, जिन पर भारतीय मनुष्य धूल उड़ाते हुए चलते हैं। वह इस उम्र में भी अभी रचनात्मक रूप से सक्रिय हैं, और आशा है कि भविष्य में भी हिंदी साहित्य को कुछ और अविस्मरणीय कृतियां उनकी कलम से हमें मिलेंगी।
कविता, कथा और गद्य में विनोद कुमार शुक्ल ने एक नई और अनूठी जगह अपने लिए बनाई है, जो परंपरा, आधुनिकता और एक साधारण मनुष्य की कल्पनाशीलता के सम्मिश्रण से बनी है। वह बड़ी विनम्रता से अपनी एक कविता में कहते हैं, ‘पेड़ अगर मिलने के लिए मेरे घर तक नहीं आ सकता, तो मैं मिलने पेड़ तक चला जाता हूं।’ और न केवल सिर्फ पेड़ से, बल्कि वह मनुष्यों से भी उसी संवेदना के साथ मिलते हैं और कहते हैं- ‘जो मेरे घर कभी नहीं आएंगे, मैं उनसे मिलने उनके पास चला जाउंगा।’ यह विनम्रता और संवेदना और एक भारतीय मनुष्य के साधारण जीवन का सत्य उनकी सारी कृतियों में बहता हुआ दिखाई देता है। प्रकृति जैसे धरती पर पेड़ और पौधे लिखती है, उसी धीरज, उसी तन्मयता से वह अपना साहित्य रचते हैं। साहित्य में एक सच्ची और विश्वसनीय आवाज को किन्हीं अन्यान्य कारणों से अनसुना तो किया जा सकता है, लेकिन उस आवाज को मिटाया नहीं जा सकता। विनोद कुमार शुक्ल की आवाज धीमी है, लेकिन वह दूर तक सुनाई देने वाली आवाज है। विनोद कुमार शुक्ल की इस अंतरराष्ट्रीय मान्यता ने इस बात को और पुख्ता किया है।
पिछले दशकों में उदय प्रकाश की ‘पीली छतरी वाली लड़की’ और दूसरी कहानियों के फ्रेंच और अंग्रेजी अनुवादों ने अंतरराष्ट्रीय साहित्यिक बिरादरी का ध्यान खींचा था। फिर अलका सरावगी के उपन्यास ‘कलिकथा वाया बाईपास’ के इंग्लिश और फ्रेंच में हुए अनुवाद ने इस बिरादरी में जगह बनाई। गीतांजलि श्री का बुकर और विनोद कुमार शुक्ल को मिला पेन/नेबाकोव अवार्ड उसी की अगली कड़ी समझना चाहिए। इधर यह भी देखा जा रहा है कि पहले जहां हिंदी की श्रेष्ठ कृतियों के अनुवाद विदेशी भाषाओं में बहुत कम मात्रा में होते थे, यह परिदृश्य भी अब बदला है। पिछले दशक में विनोद भारद्वाज, अखिलेश और चंदन पांडेय जैसे युवा लेखकों की कृतियों के अंग्रेजी और अन्य विदेशी भाषाओं में अनुवाद हुए, यानी इसका प्रचलन बढ़ा है। भविष्य में यह राह और भी सुगम होगी, ऐसा मानना चाहिए। जैसे-जैसे हिंदी की अन्य श्रेष्ठ कृतियों का भी अंग्रेजी के साथ दूसरी विदेशी भाषाओं में अनुवाद का सिलसिला बढ़ेगा, हिंदी भाषा की गूंज भी दुनिया में सुनाई देगी। यह हिंदी भाषा और हिंदी साहित्य के लिए एक शुभ संकेत है।