बिल्कुल सामान्य ग्रामीण पारिवारिक पृष्ठभूमि से आए डॉ. राधेश्याम बारले को केंद्र सरकार ने प्रतिष्ठित पद्मश्री पुरस्कार प्रदान करने की घोषणा की है। इसके साथ ही वे देश के पहले पंथी नर्तक हो गए हैं, जिसे पद्म सम्मान मिला हो। डॉ. बारले की कला यात्रा और भविष्य की योजनाओं पर एक्सक्लूसिव बातचीत की है। उन्हीं से सुनिए उनकी कला साधना की गाथा…
दुर्ग जिले में पाटन के पास मेरा गांव है खोला। 9 अक्टूबर 1966 को वहीं जन्म हुआ। प्राइमरी की पढ़ाई-लिखाई भी गांव के प्राइमरी स्कूल में ही हुई। पिता समारु राम बारले और दूसरे वरिष्ठ लोग गांव में रामधुनी और जसगीत के स्थापित कलाकार थेे। बेहद छोटे स्तर पर। उनके गीतों में अधिकतर कृष्ण जन्म से जुड़े प्रसंग होते थे। गांव के चौक पर स्थापित जैतखाम के पास पंथी भी होता था। वहीं से इसका ककहरा मिला।
1977 की बात है, मैं 10-11 साल का रहा होउंगा। BSP के एक रिटायर्ड कर्मी अर्जुन माहेश्वरी ने उन्हें एक गीत लिखकर दिया। कहा-तुम्हारी आवाज अच्छी है। इसे गाकर नृत्य करो। गांव-घर में ही उसका पहला प्रदर्शन हुआ। अगले वर्ष यानी 1978 में अनंत चतुर्दशी के दिन पड़ोस के बोदल गांव में उनको पंथी के प्रदर्शन का पहला आमंत्रण मिला। इसी के साथ उनकी कला यात्रा गांव से बाहर निकली।
वहां से शुरू हुई कला यात्रा साल दर साल निखरती रही। उनके पंथी दल को दूसरे जिलों में भी प्रदर्शन के निमंत्रण आने लगे। अधिकतर गणेश उत्सव, जन्माष्टमी और बाबा गुरु घासीदास से जुड़े आयोजनों में इसका प्रदर्शन होता। 15 वर्ष की उम्र तक मैं पंथी का स्थापित कलाकार हो चुका था। उनके दल को कार्यक्रम मिलते रहे। प्रदेश के दूसरे हिस्सों में भी कला का प्रदर्शन होता रहा।
नाटकों में महिला पात्र
नृत्य और नाटकों में ही रमा हुआ था तो बचपन से ही रंगमंच पर भी रहा। कई नाटकों में महिला पात्रों की भूमिका निभाई। इसमें राजा हरिश्चंद्र, राजा मोरध्वज, भक्त पूरनमल, शीत बसंत, रामलीला, कृष्णलीला, गोवर्धनलीला जैसे नाटक शामिल थे। कई नाटकों और टेलिफिल्मों का लेखन निर्देशन भी किया। इसमें छत्तीसगढ़ दर्शन, असकट के दवई, बिन आखर पसु समान, भरम के भूत, असगा देवार के दशमत कैना जैसे नाटक शामिल हैं।
शिक्षा-दीक्षा का हाल
गांव में प्राइमरी की पढ़ाई पूरी करने के बाद 6वीं से 10वीं तक की पढ़ाई बटरेल के सरकारी स्कूल से पूरी की। 11वीं-12वीं की पढ़ाई के लिए दुर्ग जाना पड़ा। वर्ष 1988-89 में जबलपुर में एक संस्थान से एमबीबीएस-बायो की डिग्री ली। लेकिन इससे प्रैक्टिस नहीं की। उसी दौरान इंदिरा कला एवं संगीत विश्वविद्यालय खैरागढ़ से लोक संगीत में डिप्लोमा कर लिया।
बाबा गुरु घासीदास के जीवन चरित्र और उपदेशों को समर्पित पंथी नृत्य तेज गति की लोक शैलियों में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। एक प्रदर्शन के दौरान राधेश्याम बारले और उनके साथी।
44 सालों में 5 हजार से अधिक प्रदर्शन
1977-78 से शुरू हुई कला यात्रा अब भी जारी है। पिछले 44 वर्षों में 5 हजार से अधिक प्रदर्शन कर चुका हूं। तत्कालीन चार राष्ट्रपतियों शंकर दयाल शर्मा, केआर नारायणन, एपीजे अब्दुल कलाम और प्रणव मुखर्जी के सामने प्रदर्शन का मौका मिल चुका है। छत्तीसगढ़ के भोरमदेव महोत्सव, सिरपुर महोत्सव, भोजपुर महोत्सव, खैरागढ़ महोत्सव, मल्हार महोत्सव में प्रदर्शन हुए।
वहीं दिल्ली हाट, मध्य प्रदेश के विदिशा महोत्सव, सिंहस्थ कुंभ उज्जैन, बेतवा महोत्सव, ओडिशा के खारवेल महोत्सव, बुरला उत्सव में उनके दल का प्रदर्शन हुआ है। असम, सिक्किम, पश्चिम बंगाल, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, बिहार, झारखंड, आंध्र प्रदेश के कई शहरों में कई-कई बार प्रदर्शन हुए हैं।
प्रयोग, प्रशिक्षण और भविष्य
देश-विदेश के प्रशिक्षुओं को पंथी का प्रशिक्षण दिया है। इसमें अमेरिका और मैक्सिकों से आए लोग भी शामिल हैं। नगालैंड, सिक्किम के थिएटर कलाकारों को प्रशिक्षित किया। गांव के जय सतनाम पंथी एवं सांस्कृतिक समिति के जरिए जोहन कोठारी, देवसिंह भारती, बालाराम कोसरे, शिवनाथ बंजारे, पंचराम जांगड़े, शीतल कोठारी, हरप्रसाद डाहरे के साथ मिलकर पंथी नृत्य में झांकी शामिल कर उसे नया स्वरूप दिया है।
अभी उनकी कोशिश छत्तीसगढ़ के विलुप्त हो चुके वाद्य यंत्रों चिकारा, खंजेड़ी और खड़ेसाज का प्रशिक्षण देने का है। इसके लिए हर क्षेत्र से युवा तैयार किए जा रहे हैं। प्रदेश भर में लोककला महोत्सवों के जरिये कलासाधकों को मंच देने की कोशिश होगी।
अब तक मिले बड़े पुरस्कार
- 2008 में छत्तीसगढ़ सरकार का पहला देवदास बंजारे सम्मान
- 2012 में छत्तीसगढ़ सरकार का गुरु घासीदास लोक चेतना सम्मान
- 2016 में छत्तीसगढ़ सरकार का डॉ. भंवरसिंह पोर्ते सम्मान