Home जानिए जानिए- लंगर का खाना घर क्यों नहीं ले कर जाना चाहिये?

जानिए- लंगर का खाना घर क्यों नहीं ले कर जाना चाहिये?

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लंगर सिखों के गुरुद्वारों में प्रदान किए जाने वाले नि:शुल्क, शाकाहारी भोजन को कहते हैं। लंगर, सभी लोगों के लिये खुला होता है चाहे वे सिख हो या नहीं। लंगर शब्द सिख धर्म में दो दृष्टिकोणों से इस्तेमाल होता है। सिखों के धर्म ग्रंथ में “लंगर” शब्द को निराकारी दृष्टिकोण से लिया गया है, पर आम तौर पर “रसोई” को लंगर कहा जाता है जहाँ कोई भी आदमी किसी भी जाति का, किसी भी धर्म का, किसी भी पद का हो इकट्ठे बैठ कर अपने शरीर की भूख अथवा पानी की प्यास मिटा सकता है।
इस प्रशन का उत्तर देने से पहले एक छोटी सी कहानी साझा करना चाहूंगा जो मैंने कहीं प्रवचन सुनते हुए सुनी थी । एक बार एक प्रसिद्ध सिख जगत के ज्ञानी व्यक्ति अजमेर शरीफ शहर के किसी चौराहे पर अपनी गाड़ी के साथ थे।उनकी गाड़ी किसी और द्वारा चलाई जा रही थी और वह पीछे बैठे हुए थे। उसी समय एक दीन वहीन हालत में एक फकीर गाड़ी के पास आया और उसने उनसे उस भले समय में खाना खाने के लिए पैसे मांगे ज्ञानी जी ने उस समय के हिसाब से जो भी पैसे उसे दिए वह इतने थे कि कोई व्यक्ति दो दिन का खाना खा भी सकता था ।फकीर ने जब पैसे लेने के बाद यह देखा कि वो 2 दिन के खाने के पैसे हैं उसने उसी समय एक दिन के खाने का पैसा रखकर बाकी वापस कर दिए उसकी इस हरकत से ज्ञानी जी बहुत हैरान और आश्चर्यचकित हुए उन्होंने कहा ” कि भाई पैसे क्यों वापस करते हो रख लो” उस फकीर ने उन्हें कहा ” कि मुझे आज का खाना ही खाना है कल के खाने का कोई ना कोई और इंतजाम हो जाएगा” ज्ञानी जी ने कहा ” यह पैसे तुम्हारे कल काम आ जाएंगे” किन्तु वह फकीर आगे से बोला ” कि कल का कुछ पता नहीं परन्तु कल का इंतजाम भी मालिक ने करके ही रखा होगा जैसे आज उसने किया है” । ज्ञानी जी, उसकी इस बात से इतने प्रभावित हुए कि वो अक्सर यह घटना जो उनके साथ उस समय घटी थी वे अपने प्रवचन में सुनाया करते थे।
कुल मिलाकर इस घटना का भाव यह है कि जिस ईश्वर ने आदमी को इस सृष्टि पर भेजा है उसने उसका इंतजाम पहले ही बना के रखा है किंतु हम अपनी अल्पबुद्धि करके इस बात को नहीं समझते और यह मानव स्वभाव है कि आदमी इतना जोड़ना चाहता है कि उसे यह लगे कि उसकी संतान भी उसके द्वारा एकत्रित धन से निश्चिंत रहे।
आप में से अधिकतर लोगों ने यदि गुरुद्वारे के लंगर मे भोजन किया हो तो आपने वहाँ यह भी देखा होगा कि गुरुद्वारे के अंदर लंगर संचालन करने वाले सेवादार किसी भी मनुष्य को प्लेट में झूठा छोड़ने के बारे में सचेत करते रहते हैं भाव, वह कहते हैं कि आप उतना ही भोजन प्लेट में डलवाओ जितना आप खा सकते हो, आवश्यकता से अधिक भोजन बेकार हो सकता है मैंने गुरुद्वारा बंगला साहब के लंगर हाल में कई ऐसे सेवादारों को भी देखा है जो लोगों की प्लेटो में बचे खाने को पूरी तरह स्माप्त करने के लिए जोर देते रहते हैं।
कई बार तो वह कुछ ऐसे गैर सिख व्यक्तियों को पूरा खाना समाप्त करके ही लंगर हॉल से बाहर जाने देते हैं जिन्होंने आवश्यकता से अधिक खाना अपनी प्लेट मे डलवाया होता है।
लंगर हॉल में बैठे समय कई ऐसे व्यक्तियों से भी वास्ता पड़ता है जो लंगर के खाने को अपने साथ लाई हुई पॉलिथीन की थैली में डालते रहते हैं उस समय कई लोगों की दयनीय दशा देखकर भी लगता है कि शायद ये व्यक्ति अगले समय के खाने का भी बंदोबस्त कर रहे हैं या अपने किसी ऐसे संगी साथी के लिए भी खाना लेकर जा रहे हैं जो उनके साथ ना आकर कहीं और हो।
कई बारी अपने स्थानीय गुरुद्वारों में मैंने ऐसे ही कई परिवार देखे हैं जो अच्छे प्रकार से सुविधा संपन्न होने के बावजूद लंगर के खाने की सब्जी, प्लेट व अन्य प्रकार से बर्तनो मे लेकर अपने घरों मे ले जाते हैं उनका उद्देश्य भी शायद यही रहता है कि जो पारिवारिक सदस्य लंगर भवन में नहीं आ पाए हैं वो उनके लिए भी भोजन साथ ले जाए या उन्हें लगता है कि अन्य सदस्यों का खाना साथ ले जाने से उन्हें एक समय किचन से फुर्सत मिल जाएगी।
यदि गुरु की शिक्षा के अनुसार देखा जाए तो लंगर का भोजन लंगर में ही करके मनुष्य को निकल लेना चाहिए उपरोक्त कहानी का उद्देश्य भी यही था कि जिस परमपिता परमेश्वर ने हमें इस सृष्टि पर भेजा है हमारे लिए भोजन पानी का प्रबंध भी उसी ने बना रखा है आप पशु पक्षियों को देख लीजिए जिनका जीवन है खाने की जरूरतों को पूरा करने के लिए बना है वह भी सुबह से शाम तक दाना खाकर अपने घरों में चले जाते हैं वो अपने साथ कोई झोला या थैला लेकर नहीं आते हैं जिनमें वह अपने भविष्य के लिए अथवा परिवारिक सदस्यों के लिए उन दानों को भर के ले जाए। ज्यादा से ज्यादा , वह अपने मुंह में ही कुछ दानों को इस तरह से दबा लेते हैं जो उनके छोटे बच्चों को भोजन के रूप में मिल जाते हैं।
कुल मिलाकर मेरे उत्तर का निष्कर्ष यही है कि लंगर का खाना आप अपनी सुविधा के अनुसार घर ले जा भी सकते हैं यदि आप साधन संपन्न नहीं है अथवा आपके पास रात के खाने का इंतजाम नहीं है यदि आपको लगता है कि आप अपने बच्चों के लिए इसलिए खाना लेकर जा रहे हैं कि आपके पास उन्हें खिलाने के लिए समुचित धन नहीं है परन्तु यदि आप साधन संपन्न है आप कभी भी लंगर का भोजन अपने साथ बांधने की चेष्टा ना करें कोशिश करें कि लंगर के बाद वहां रखी गोलक में भी कुछ पैसे दान स्वरूप डाल दे, आपको स्वयं ही ऐसे लगे कि मैंने गुरु घर में यदि भोजन किया है तो मैंने यह पैसे दे दिए हैं।
गुरुद्वारा बंगला साहब के अंदर मैंने सेवादारों को बार-बार पूछते देखा गया है यदि आप की प्लेट में कोई चीज कम है तो डलवा लो मुझे अच्छी तरह ध्यान है कि उस 4 या 5 खानो वाली प्लेट में एक समय में दो सब्जियां चावल रोटी सलाद भी दिया जाता है यही प्लेट यदि बाहर किसी खाने के ठीहे पर खाई जाए तो कम से कम ₹40 से कम नहीं है इसके अतिरिक्त यदि आपको एक बार उससे कोई सब्जी पुनः डलवानी पड़े तो वह भोजन विक्रेता झूंझला जाता है जबकि गुरुघर मैं आपसे बार-बार विनती की जाती है कि कुछ और लेना है तो और ले लीजिए।