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दुकान पर नाम पढ़कर ग्राहक लौट जाते हैं, 50 सालों से झंडे बेच रहा हूं..

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70 बरस के अब्दुल्लाह देश का झंडा तैयार करते हैं. इस काम में तकरीबन 50 साल खर्च चुके अब्दुल्लाह कहते हैं- मेरे ज्यादातर दोस्त गैरमजहब से हैं. पेशे में जब भी बड़ा घाटा हुआ, उन्होंने अपने कंधे जोड़कर भरा. अब माहौल अलग है. बम फटे या रसोई में दावत पके- लोग शक की निगाह से देखते हैं. बस, झंडे को ही हमारे मजहब से वास्ता नहीं.

किसी शहर को शहर बनाने में रिहाइशी इलाके जितने खास होते हैं, उतने ही खास होते हैं बाजार. फल-सब्जी, रोटी-मिठाई से लेकर इत्र-फुलेल या गाड़ियों-इमारतों को बनाने वाले बाजार. दिल्ली का सदर बाजार ऐसा ही एक इलाका है. वक्त के साथ भी अपने तमाम पुरानेपन को सहेजे हुए. इसी पुरानेपन का एक हिस्सा हैं अब्दुल्ला, जो लगभग 50 सालों से झंडे का कारोबार कर रहे हैं.

सन 52 की पैदाइश अब्दुल्ला ने आजाद मुल्क के तमाम उतार-चढ़ाव देखे हैं.

इमरजेंसी लगी थी. चौराहों पर 4 आदमी खड़े दिखे तो सरकारी कान खड़े हो जाया करते. बाजार के लिए भी आदेश था कि हर दुकान पर राष्ट्रीय झंडे के बाजू में संजय गांधी की तस्वीर लगे. जैसे जलजला आया हो. खूब चहल-पहल वाले बाजारों से भी रौनक गुम थी. सन्नाटा पसरा रहता था लेकिन मेरे पेशे की तब खूब बरकत हुई. ढेरों-ढेर झंडों का ऑर्डर आया करता.

आवाज में हल्के गुरूर के साथ वे बताते हैं- काम करने वाले लड़के खोज-खोजकर हमारे पास पहुंचते. हम भी किसी को लौटाते नहीं थे. खासकर चुनावों के मौसम में रात-दिन काम चलता.

दोपहरों में घर से खाना आता तो मालिक-कामगार साथ मिलकर खाते थे. फिर राष्ट्रीय झंडे बनाने का काम ज्यादा करने लगा. अच्छा लगता था. हमारे हाथों से निकलकर झंडा किसी ऊंची इमारत की शान बनेगा. पैकिंग के समय बड़ी एहतियात रखते हैं. किसी भी झंडे में जरा कोंच (खरोंच) न आने पाए. मुल्क की पहचान शान से लहराए.

हर दिन एक से नहीं रहते. अंग्रेजी हुकूमत के इकबाल की तरह हमारा भी काम नीचे लुढ़का. एक बार एक बड़ा ऑर्डर आया था. तब उसी गुरबत से जैसे-तैसे निकला था. कारोबार में लगाने को पैसे नहीं थे. एक हिंदू दोस्त (तब हम उन्हें खालिस दोस्त ही कहा-माना करते थे) अनिल शर्मा ने काफी मदद की थी. बिना ब्याज के पैसे दिए. सबसे बड़ी बात कि बिना लिखापढ़ी के दिए. उन्हें डर था कि लिखापढ़ी हो जाए और मैं चुका न सकूं तो तो आने वाली पीढ़ियां खून-खच्चर करेंगी.

नाम के कारण शक 
वक्त बदला. आज भी अक्टूबर 2005 की वो शाम याद है. दिल्ली में एक के बाद एक सीरियल ब्लास्ट हुए. फिर तो अगले कई हफ्तों तक जो भी मिला, सबकी आंखों की कोरों में या तो शक था या सवाल. सब बिना पूछे मानो पूछते हों- ये काम किसका है! कुछ तो कहो. थोड़ा तो अंदाजा होगा.

लंबे वक्त से साथ काम कर रहे कई कारोबारियों ने तब मिलकर काम करने से इन्कार कर दिया था. दबी जुबान से वे कहते- मुस्लिम नाम सुनने पर बाजार में कई जगह रुकावट आती है. लोग यकीन नहीं कर पाते.

तब दोबारा काम में बड़ा नुकसान हुआ था लेकिन वो नुकसान दिल के जख्मों से गहरा नहीं था. 

मुस्लिम हूं इसलिए झंडा नहीं लेते
थोक का कारोबार करने वाले अब्दुल्ला रिटेल में भी काम करते हैं. झंडों की बिक्री करते हुए अलग-अलग तरह से लोगों से साबका पड़ता है. ऐसा ही एक वाकया याद करते हुए वे बताते हैं- आजादी और गणतंत्र पर लोग खूब झंडे लेने आते हैं. कई बार अपने पेरेंट्स के साथ बच्चे भी होते हैं. ऐसा ही एक परिवार दुकान के सामने से गुजर रहा था. बच्चे ने झंडा लेने की जिद की. उसके साथ के बड़े दुकान में घुसते हुए एकाएक ठिठक गए. शायद उन्होंने दुकान का नाम पढ़ लिया था. वे वापस लौट गए और पास की एक दुकान से झंडे लिए. मैं शटर के पास ही खड़ा था. सारा माजरा समझ रहा था. उस रोज मेरा किसी काम में मन नहीं लगा. मन करता था बच्चों के मां-बाप को बुलाकर पूछूं- क्या हम हमवतन नहीं! लेकिन उम्र और बिजनेस के तकाजे ने मुझे रोक दिया.

संजीदगी से बात करते अब्दुल्ला एकाएक चिड़चिड़ी आवाज में कहते हैं- अब बताइए, मुझसे इंटरव्यू भी इसीलिए हो रहा है क्योंकि मैं मुसलमान हूं. और झंडे का कारोबार करता हूं. दरअसल सारा माहौल पार्टियों और आप लोगों की मीडिया ने खराब कर रखा है. वही बदगुमानी कर रहे हैं.

उन्हीं की मेहरबानी है कि अब हमारे यहां दावतों में गोश्त पकता है तो लोग भौंहें टेढ़ी कर लेते हैं.