फिनलैंड के शहर तैंपेरे का रेटिना स्टेडियम. स्टेडियम के गोल घेरे में सफेद पेंट से कुल आठ लेन बनी हुई हैं और उन पर 8 लड़कियां खड़ी हैं. रेस से ठीक पहले की फिक्र और उत्तेजना में डूबी हुई. सबके चेहरे पर बेचैनी साफ दिख रही है. चौथे ट्रैक पर गाढ़े नीले रंग की जर्सी और सफेद जूतों में एक सांवली सी मामूली नैन-नक्श वाली लड़की खड़ी है. वो थोड़ा झुकती है, घुटनों को मोड़ती है, एक पैर आगे, एक पीछे, पंजों के बल. वो दौड़ने की मुद्रा ले रही है. कैमरा उसके नजदीक जाता है तो उसके बालों में लगी वो दसियों हेयरक्लिप दिखाई देती हैं, जिसके सहारे बालों को कसकर सिर से चिपका दिया गया है. गले में एक काले रंग का धागा है और दोनों हथेलियों में लाल रंग का कुछ बंधा है. दौड़ने से ठीक पहले वो जमीन को हाथों से चूमती है और फिर वो हाथ अपने सीने से छुआती है. स्टेडियम में गोली चलने की आवाज और ऐसा लगे, जैसे वो आठों लड़कियां उस बंदूक से छूटी गोली हैं.
जितनी देर में कैमरा उन पर फोकस करे या आपकी आंख ठीक से देख पाए कि वो कहां हैं, वो स्टेडियम के ट्रैक पर आंधी की तरह फरफराती उड़ चुकी हैं. कैमरा और कमेंटेटर की आवाज उस आंधी का पीछा करते हुए. आपको उस क्षण की उत्तेजना कमेंटेटर की आवाज में महसूस होती है. एक सेकेंड पहले वो कह रहा था, “अमेरिका की टेलर मैनसन सबसे तेजी से दौड़ती हुई, आंद्रे मिकलोस दूसरे नंबर पर” और इससे पहले कि वो अपना वाक्य पूरा करे, एक माइक्रो सेकेंड में खेल पलट गया. इंडिया की हिमा दास सबको पछाड़ते हुए सबसे आगे. कमेंटेटर चिल्लाते हुए, “हेयर कम्स हिमा दास, द इंडियन, शी कैन सी द लाइन, शी कैन सी द लाइन, शी कैन सी द हिस्ट्री…” और ये वाक्य पूरा होने से पहले हिमा दास लाइन क्रॉस कर चुकी थीं. पीछे से आवाज आ रही थी, “भारत ने पहले कभी ये रेस नहीं जीती, ये एक ऐतिहासिक
क्षण है.”
जब उन लड़कियों ने दौड़ना शुरू किया था तो हिमा दास चौथे नंबर पर थीं. लेकिन आखिरी 20 सेकेंड में वो ऐसे दौड़ी कि देखने वालों की सांस 20 सेकेंड के लिए रुक गई. वीडियो देखते हुए आपकी भी रुक जाएगी.
पिछले साल पढ़ी होगी मैंने ये खबर. पढ़ी और भूल गई. लेकिन अब जब उसे दौड़ते हुए महसूस किया तो वो दृश्य नहीं भूल पा रही. वो हिमा दास का हवा की तरह उड़ना, वो इतनी मजबूती और भरोसे से उसके पैरों का जमीन पर पड़ना. दौड़ खत्म होने के बाद हिमा के चेहरे पर वो चमक, वो सौम्यता, वो हंसी. वो तिरंगे को लेकर दौड़ती और उसे बदन से लपेटती दुबली-पतली, लेकिन मजबूत भुजाओं वाली लड़की. उसके चेहरे, उसके हाथ, उसकी उंगलियों के हर उतार-चढ़ाव से झांक रही पतली हड्डियां, लेकिन उन हड्डियों में असीम बल. वो जब दौड़ रही थी तो उसके पैरों की गति, उसकी जांघों का बल मानो स्त्रीत्व की नई परिभाषा गढ़ रहे थे. वो एक पिछड़े मुल्क की सताई हुई लड़कियों के सपनों की गति से उड़ रही थी. जब वो दौड़ती है तो ऐसी लगती है कि आप उसके मोहपाश में बंधे बिना नहीं रह पाएंगे. स्पोर्ट्स में आपकी कोई गति न हो, तब भी.
मैं उसकी देह की ताकत, उसकी फुर्ती, तेजी और उसकी हड्डियों के बल से अभिभूत हूं.
कल अचानक जब मैंने वो वीडियो देखा तो लगा, जैसे किसी ने सिर पर बिजली का तार छुआ दिया हो. मुश्किल से डेढ़ मिनट के उस वीडियो का असर ऐसा था कि डेढ़ घंटे तक मेरे मुंह से शब्द नहीं फूटे. मैंने उसे रिवर्स करके कई बार देखा. जूम करके देखा, यू-ट्यूब पर दूसरे वीडियो ढूंढे. उस एक मिनट को जितनी तरह से रिकॉर्ड किया गया था, सब देख डाला. मन तब से हिला हुआ सा है. गर्व भी है और खुद पर शर्म भी. लड़कियों की दुख कथा तो इतनी लिखी, इस लड़की की कहानी क्यों नहीं लिखी.
अखबारों की ताजी हेडलाइन हैः “20 दिनों में पांचवां गोल्ड.”
हिमा दास इस महीने खूब जमकर दौड़ी हैं. 2 जुलाई को पोजनान एथलेटिक्स ग्रांड प्रिक्स में 200 मीटर रेस 23.65 सेकंड में पूरी करके गोल्ड मेडल जीतने से शुरू हुआ हिमा का ये गोल्डन अभियान शनिवार को चेक रिपब्लिक में हुई नोवे मेस्टो नाड मेटुजी ग्रां प्री में गोल्ड जीतने के साथ खत्म हुआ है. 20 दिनों के अंदर इस लड़की ने पांच स्वर्ण पदक जीते हैं.
कहां, कब, किस रेस में जीता, स्पोर्ट्स प्रेमियों को तो ये सब पता ही होगा. ये लिखते हुए मैं उन सूचनाओं को दोहराना नहीं चाहती. मैं सिर्फ इस लड़की के बारे में थोड़ा और जानना चाहती हूं. ये कहां से आती है? क्या है इस उड़ने वाली लड़की की कहानी?
19 साल पहले असम के नगांव जिले के एक गांव धींग में जन्मी हिमा के पिता रणजीत दास गांव के मामूली किसान हैं. चावल उगाते हैं. घर में छह बच्चे और उन छहों में हिमा सबसे छोटी. घर से स्कूल और खेतों तक दौड़ लगाने वाली लड़की के लिए किसने सोचा होगा कि एक दिन वो ऐसे दौड़ेगी कि दुनिया सांस रोके देखेगी.
पूरे नॉर्थ-ईस्ट में लोगों को अगर किसी खेल से प्यार है, तो वो है फुटबॉल. गुवाहाटी से काजीरंगा और तेजपुर के रास्ते में भी जगह-जगह आपको खाली मैदानों में युवा फुटबॉल खेलते मिल जाएंगे, जैसे उत्तर भारत में क्रिकेट खेलते मिलते हैं. लेकिन एक फर्क है दोनों में. अपनी स्मृति पर जोर डालिए और याद करिए, कभी आपने देखा हो ऐसे किसी खुले मैदान में हाफ पैंट पहने क्रिकेट या कोई भी खेल खेलती, दौड़ती लड़कियों को. या खेल न रही हों तो कम से कम जमीन पर, सड़क किनारे झुंड बनाकर खेल देख ही रही हों. मुझे तो 38 सालों में ऐसी कोई स्मृति नहीं. लेकिन नॉर्थ ईस्ट में ऐसा नहीं है. वहां ऊबड़-खाबड़ मैदानों में बेहद मामूली कपड़ों और जूतों में और कई बार तो बिना जूतों के भी फुटबॉल खेलते लड़के-लड़कियां दिख जाएंगे. सिर्फ लड़कियां भी खेलती मिलेंगी. ये दृश्य वहां बहुत आम है.
इसलिए जब मैंने पढ़ा कि 2016 के पहले हिमा फुटबॉल खेलती थीं तो मुझे खेतों और मैदानों में फुटबॉल खेलती वो लड़कियां याद आईं, जिन्हें मैंने असम में देखा था. लड़की स्कूल में, गांव में, खेत में, आसपास के मैदानों में बचपन से फुटबॉल खेलती बड़ी हुई थी. जाहिर है, किसी ने ये कहकर रोका भी नहीं होगा कि लड़की होकर क्यों टांगे दिखाती दौड़ती फिरती हो, जैसे उस अंग्रेजी फिल्म “बेंड इट लाइक बेकहम” में लंदन में रह रहे उस पंजाबी परिवार की जवान लड़की को उसकी मां कोसती थी.
हिमा ने स्कूल तक फुटबॉल खेला. आगे प्रोफेशनली खेलने के लिए प्रॉपर ट्रेनिंग चाहिए थी. उसमें पैसे लगते तो उसने जिला लेवल पर खेलकर खेलना बंद कर दिया. लेकिन उसके स्कूल के फुटबॉल कोच शमसुल शेख ने कहा, “फुटबॉल न सही, तुम दौड़ती बहुत तेज हो, तो दौड़ में क्यों नहीं जाती.” थोड़ा तो आसान था दौड़ना. सिर्फ दौड़ना ही तो था. जांघें तो उसकी हमेशा से बलवान. एक हड्डी का शरीर लेकिन जब फुटबॉल के पीछे दौड़े तो हवा से बात करे. न थके, न रुके. सिर्फ चावल और मछली खाने वाली हिमा की हड्डियां जाने किस मिट्टी की बनी थीं.
अपने कोच की सलाह पर हिमा ने दौड़ में हाथ आजमाया, मिट्टी के ट्रैक पर दौड़-दौड़कर अभ्यास किया और पहुंच गई एक राज्यस्तरीय प्रतियोगिता में हिस्सा लेने. वहां उसने कांस्य पदक जीता. सब हैरान थे, ये लड़की कौन है. पहले कभी न देखा, न सुना. सब चकित हुए और फिर भूल गए.
हिमा के लिए इससे आगे जाने की बहुत राह नहीं थी, अगर एक दिन उस आदमी की नजर उस पर न पड़ी होती. असम के खेल कल्याण निदेशालय में एथलेटिक्स के कोच निपुण दास. निपुण दास ने किसी स्थानीय स्पर्धा में मामूली से कपड़े के जूतों में हिमा को दौड़ते देखा. पारखी नजर ने पहचान लिया, हाथ थाम लिया, मदद की, हौसला बढ़ाया, ट्रेनिंग दी, पैसों से सहयोग किया. वो सब किया, जो हमने किताबों में पढ़ा है कि एक गुरु करता है. हिमा की कहानी में निपुण दास ऐसे है, जैसे किसी वृक्ष की कहानी में मिट्टी हो. संसार में चाहे जितना फरेब, जितना दंद-फंद हो, वक्त की किताब में दर्ज वही हुए, जो हीरों के गढ़ने वाले जौहरी थे. वरना कहां चावल उगाने वाले एक गरीब किसान की बेटी एक के बाद एक ऐसे दनादन गोल्ड पीट रही होती, जैसे औरतें पट-पट कपड़ा पीटती हैं.
दौड़ने के साथ-साथ हिमा इस साल बारहवीं में फर्स्ट क्लास पास भी हुई है. इस बारिश में जब हिमा दौड़-दौड़कर स्वर्ण पदक इकट्ठा कर रही थी, असम में उसका गांव और घर बाढ़ में डूबा हुआ था. अब भी डूबा है. खुद बाढ़ में डूबे घर में रहने वाली लड़की ने अपनी आधी तंख्वाह असम के बाढ़ राहत कोष में दान कर दी है.
उस एक वीडियो से शुरू हुई थी कहानी. मुझे उस लड़की के अतीत तक खींचकर ले गई. इस भरोसे को एक बार और मजबूत करने के लिए कि अगर आप में हुनर हो, इतना बल और इतनी ईमानदारी, जितनी कि हिमा दास में है तो मंजिल खुद चलकर दरवाजे तक आती है. अगर इतनी सौम्यता और विनम्रता हो तो आपको वो होने से कोई रोक नहीं सकता कि जो आप सचमुच हैं.
हिमा दास का दौड़ना दरअसल सचमुच हिमा दास हो जाना है. उसका खुद को पा लेना है.