रामदेव बाबा, श्री श्री रविशंकर और दूसरे साधु-साध्वियों के पहले भी बहुत से बाबा हुए हैं. उन बाबाओं के भी राजनीतिक सरोकार रहे. ऐसे संतों बाबाओं में सबसे पहले नाम आता है धर्मसंघ बनारस के करपात्री जी महाराज का. बहुत समय तक राजनीति को प्रभावित करने वाले इस दिग्गज संत ने तो अपनी राजनीतिक पार्टी भी बना ली थी. इसी क्रम में देवरिया जिले के देवरहा बाबा का भी नाम आता है.
देवरहा बाबा का बहुत सम्मान था
कांग्रेस पार्टी को हाथ का पंजा देवरहा बाबा ने दिया था. देवरहा बाबा गोरखपुर के पास देवरिया जिले के थे. एक जाने-माने संत. एक ऐसे संत जो समाज के मेलों में आते तो थे, लेकिन भीड़ में नहीं रहते थे. उनके बारे में तरह-तरह की कहानियां प्रचलित थीं. कोई कहता था कि वो उन्हें पचास साल से देख रहा है, तो कोई उन्हें सौ साल से उपर का बताता था. जो भी हो उनको लेकर कोई विवाद कभी सामने नहीं आया. हर तरफ से उनके लिए सम्मान ही मिलता रहा.
पंजे से पहले कांग्रेस का चुनाव निशान गाय-बछड़ा था. आपातकाल के दौरान विपक्षी नेताओं को जेलों में भरा जा रहा था. माना जा रहा था कि इंदिरा गांधी के बेटे संजय गांधी प्रधानमंत्री के नाम पर फैसले ले रहे थे. विपक्षी दलों ने इसका खूब प्रचार किया. यहां तक कि कांग्रेस के चुनाव निशान को भी लपेटे में ले लिया गया. वरिष्ठ पत्रकार कमलेश त्रिपाठी बताते हैं – “उस समय राजनीति में सक्रिय रहने वाले बताते हैं कि गाय-बछड़े को इंदिरा और संजय का ही प्रतीक बता कर प्रचार किया जा रहा था.”
इंदिरा गांधी को संतो-साध्वियों से मिलना अच्छा लगता था. मां आनंद मयी के साथ फाइल फोटो
गंगा में रहते थे बाबा
बाबा गंगा किनारे या कहा जाय गंगा में ही रहते थे. गंगा के किनारे वाले हिस्से में बांस की ऊंची मचान बनती थी. बाबा उसी पर बैठे रहते थे. सुबह शाम लोग वहीं जमा हो जाते थे. बाबा अपने पैर लटका देते और श्रद्धालु पैरों से माथा छुआ कर उनके आशीर्वाद लेते थे. हालांकि अगर कोई वीआईपी जाता था तो बाबा कुछ समय भी उसे देते थे. मैंने खुद भी अपने बचपन में बाबा से किसी की कुछ बातचीत सुनी थी.
बाबा के आश्रम की फोटो भी छपी थी
आम तौर पर गले में रुद्राक्ष की माला पहनने वाली इंदिरा जी भी वहां गईं. कहा जाता है कि बाबा ने एंकात में उनसे कुछ बातें कीं. उसके बाद इंदिरा गांधी देवरिया उनके आश्रम भी गईं. जानकार बताते हैं–“वहीं बाबा ने अभय मुद्रा में हाथ उठाकर आशीर्वाद देते हुए कहा था, यही तुम्हारा कल्याण करेगा.” श्री त्रिपाठी याद करते हैं- “हम लोगों ने उस तसवीर को देखा ता जिसमें इंदिरा गांधी मइल आश्रम में गईं थीं.”
आसान था पंजे से प्रचार
वैसे बाबा भोजपुरी बोलते थे और संस्कृत के याद हो जाने लायक मंत्रों का उच्चारण करते थे. जाहिर है इंदिरा जी को उनके कहे का मतलब बताया गया होगा. जानकारों के मुताबिक आपातकाल के दौरान विरोधियों के प्रचार को रोकने के लिए इंदिरा गांधी गाय-बछड़े का चुनाव निशान बदलना ही चाहती थीं. लिहाजा उन्हें भी हाथ का पंजा जमा.
1978 में चुनाव निशान बदल गया. इस पंजे में खास बात ये थी कि इसे दिखाने के लिए किसी को कुछ लेकर जाने चलने की जरूरत नहीं थी. बस पंजा दिखा दिया. जबकि गाय-बछड़ा निशान दिखाना आसान नहीं था. इस निशान को बनाने के लिए कटी हुई स्टेंसिल का प्रयोग करना पड़ता था. जरुरत पड़ी तो तुरंत पंजा छाप दिया. इस तरह से दो बैलों की जोड़ी से शुरु हुआ कांग्रेस का चुनाव चिह्न पंजा हो गया. कुछ लोग पंजे का संबंध शंकराचार्य चंद्रशेखरेंद्र सरस्वती के आशीर्वाद से जोड़ते हैं, लेकिन हिंदी भाषी इलाके में इसे देवरहा बाबा की ही देन माना जाता है.