Home समाचार ओडिशा की सत्ता की रेस में कौन किस पर पड़ेगा भारी

ओडिशा की सत्ता की रेस में कौन किस पर पड़ेगा भारी

65
0

आम तौर पर ओडिशा में चुनाव परिणाम को राष्ट्रीय स्तर पर उतनी तवज्जो नहीं दी जाती है जितनी इस बार दी जा रही है.

इसके दो प्रमुख कारण हैं. एक तो यह कि ओडिशा उन तीन राज्यों में से एक है जहाँ लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ हो रहे हैं.

दूसरा यह कि राष्ट्रीय स्तर पर चुनावी परिणामों को लेकर अनिश्चितता के बीच सभी प्रमुख पार्टियों और राजनैतिक प्रेक्षकों की निगाहें इस बात पर टिकी हुईं हैं कि किसी दल या गठबंधन को पूर्ण बहुमत न मिलने की स्थति में अगली सरकार के गठन में बीजू जनता दल (बीजेडी) सुप्रीमो और ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक की क्या भूमिका रहेगी और वो किसके पक्ष में जाएंगे.

हालाँकि, यह सारी अटकलबाज़ी इस धारणा के आधार पर टिकी हुई हैं कि नवीन पटनायक पिछले दोनों चुनावों की तरह इस बार भी दोनों राष्ट्रीय दलों भाजपा और कांग्रेस को मात दे सकते हैं. ऐसे में राज्य की 21 लोकसभा सीटों में से ज्यादातर सीटों पर कब्ज़ा उनका हो सकता है. (पिछली बार उनकी पार्टी को 21 में 20 सीटें मिलीं थीं. एक सीट भाजपा के खाते में गई थी.)

लेकिन, लगातार 19 साल से सत्ता में रहने के बाद भी क्या सचमुच चुनाव जीतना नवीन पटनायक लिए उतना आसान होगा या उन्हें एंटी-इंकम्बेंसी का खामियाज़ा भुगतना पड़ेगा?

इस सवाल पर बीजेडी प्रवक्ता सस्मित पात्रा का जवाब बेहद दिलचस्प था. वो कहते हैं, “पूरे भारत में बीजू जनता दल शायद इकलौती ऐसी पार्टी है जो न केवल लगातार चार बार चुनाव जीती है, बल्कि उसने हर बार अपनी सीटों की संख्या में बढ़ोतरी की है. यहाँ एंटी-इंकम्बेंसी नहीं प्रो-इन्कम्बेंसी काम करती है .”

लेकिन, इस प्रश्न पर वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक प्रेक्षक आशुतोष मिश्रा की राय कुछ अलग है. वह कहते हैं, “यह सच है कि नवीन पटनायक की लोकप्रियता में कोई ख़ास कमी नहीं आई है लेकिन यह भी सच है कि उनके मंत्री, विधायक और पार्टी के अन्य कार्यकर्ताओं में से कईयों की छवि बिगड़ी है. इसलिए इस बार चुनाव में अगर एंटी-इंकम्बेंसी कुछ हद तक काम कर जाए तो मुझे आश्चर्य नहीं होगा.”

नवीन पटनायक के सामने चुनौतियां

एंटी-इंकम्बेंसी के अलावा नवीन पटनायक को इस बार कुछ अन्य चुनौतियों का भी सामना करना पड़ेगा जिनमें प्रमुख है 2014 के मुक़ाबले राज्य में दोनों प्रमुख दलों भाजपा और कांग्रेस की बेहतर स्थिति.

पिछले चुनाव में ओडिशा उन चुनिन्दा राज्यों में से एक था जहाँ देश के बाकी हिस्सों में चल रही मोदी आंधी का कोई असर नहीं पड़ा. लेकिन, इस बार वैसी स्थति नहीं है. 2014 की तुलना में राज्य में मोदी और भाजपा दोनों के प्रति जनसमर्थन बढ़ा है.

आशुतोष मिश्रा मानते हैं कि पुलवामा में चरमपंथी हमले और उसके बाद बालाकोट में हवाई हमले के बाद राजनीतिक हवा का रुख़ कुछ हद तक भाजपा और मोदी के पक्ष में बदला है और कम से कम लोकसभा चुनाव में इसका असर देखने को मिल सकता है.

क्या वाकई इन घटनाओं का फायदा भाजपा को मिलेगा, इस सवाल के जवाब में केंद्रीय पेट्रोलियम और उद्यमिता विकास मंत्री धर्मेन्द्र प्रधान कहते हैं, “मैं इन घटनाओं को राजनीति से जोड़कर नहीं देखना चाहता. मोदी जी के नेतृत्व में हमारी सरकार ने ओडिशा में जो काम किए हैं हम उसी के दमखम पर लड़ेंगे.”

धर्मेन्द्र प्रधान ने कहा, “आप जानते हैं कि मोदी जी ने सत्ता में आने के बाद से ही पूर्वी भारत के विकास पर विशेष ध्यान दिया है और इसी के तहत ओडिशा को अपनी हर कल्याणकारी योजना की प्रयोगशाला बनाया है, जिसका फायदा यहाँ के लोगों को मिल रहा है.”

“इसलिए मैं मानता हूँ कि ओडिशा की जनता मोदी जी के साथ चट्टान की तरह खड़ी है और लोकसभा और विधानसभा दोनों चुनावों में हमें उनका भरपूर समर्थन मिलेगा.”

कांग्रेस भी जोश में

उधर कांग्रेस भी प्रदेश में वर्षों से निर्जीव पड़े अपनी पार्टी संगठन में जान फूंकने की कोशिश में जी-जान से जुट गई है. जब से पूर्व मंत्री निरंजन पटनायक ने प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में कार्यभार संभाला है तब से पार्टी योजनाबद्ध तरीके से और लगातार अपनी स्थिति में सुधार ला रही है. पार्टी को हमेशा से पीछे खींचने वाली गुटबाज़ी अब नहीं के बराबर है.

जब पूर्व केंद्रीय मंत्री और पार्टी के वरिष्ठ नेता श्रीकांत जेना ने लगातार पीसीसी अध्यक्ष की तीखी आलोचना की तो उन्हें पार्टी से निकालकर कांग्रेस अध्यक्ष ने यह स्पष्ट कर दिया कि वे न केवल निरंजन पटनायक के पीछे खड़े हैं बल्कि गुटबाज़ी और पार्टी विरोधी काम को अब बिल्कुल बर्दाश्त नहीं करेंगे .

हाल ही में राजस्थान, मध्य प्रदेश और पड़ोसी राज्य छत्तीसगढ़ में जीत के बाद ओडिशा कांग्रेस का मनोबल और पार्टी कार्यकर्ताओं का उत्साह अब बुलंदियों पर है. पार्टी यह मानकर चल रही है कि इन तीनों राज्यों की तरह ओडिशा में भी उसे एंटी-इंकम्बेंसी का लाभ मिलेगा.

यही कारण है कि भाजपा की तरह कांग्रेस भी इस बार चुनाव में ओडिशा को काफी अहमियत दे रही है. पिछले एक महीने में राहुल गाँधी दो बार ओडिशा का दौरा कर चुके हैं और अगली 8 और 13 तारीख को फिर आ रहे हैं. साथ ही ख़बर य भी है कि प्रियंका गाँधी को भी चुनाव प्रचार के लिए ओडिशा लाने की कोशिशें चल रही है

बीजेडी और बीजेपी के बीच गठबंधन का संदेह

निरंजन पटनायक मानते हैं कि इस बार कांग्रेस, बीजेडी और बीजेपी दोनों को ही कड़ी चुनौती देगी और राज्य में अपनी खोई हुई साख दोबारा हासिल करेगी.

वे कहते हैं, “ओडिशा की जनता अब यह समझ चुकी है कि बीजेडी और बीजेपी के बीच गठबंधन है और चुनाव के बाद दोनों एक बार फिर एक दूसरे का साथ निभाएँगे, जैसा कि वे 2014 के चुनाव के बाद से करते आए हैं. वे समझ चुके हैं कि बीजेडी को दिया गया हर वोट दरअसल बीजेपी के खाते में जाएगा. इसलिए मुझे पूरा विश्वास है की इस बार जनता हमारी पार्टी पर आस्था दिखाएगी.”

वैसे बीजेडी और बीजेपी दोनों किसी तरह के गठबंधन के आरोप का खंडन कर रहे हैं. लेकिन लोगों के मन में बनी इस धारणा को तोड़ना उनके लिए आसान नहीं होगा. और अगर सचमुच ऐसा हुआ तो कांग्रेस को इसका फायदा जरूर मिलेगा.

अगर इन सारी चुनौतयों के बावजूद नवीन पटनायक इस बार भी अपना दबदबा बनाए रखते हैं तो न केवल वे लगातार चार चुनाव जीतकर अपने ही कीर्तिमान को तोड़कर एक नया रिकॉर्ड बनाएंगे बल्कि भारत की राजनीति में अपने लिए एक विशेष स्थान भी बना पाएंगे.

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here