जेडीएस और इनेलो…, ये वो दल हैं, जिसके पास अपने-अपने इलाके में मजबूत जनाधार है. इसके बावजूद बीजेपी-कांग्रेस ने इन दलों को गठबंधन में शामिल नहीं किया है. आखिर वजह क्या है?
नई दिल्ली – 2024 की सियासी बिसात पर राजनीतिक दलों ने अपने अपने दांव चलने शुरू कर दिए हैं. 38 दलों को जुटाकर बीजेपी तो 26 दलों के साथ कांग्रेस चुनावी मैदान में ताल ठोकने की तैयारी में है. बीजद, वाईएसआर जैसे दलों ने अकेले लड़ने की बात कही है. हालांकि, कुछ ऐसे भी दल हैं, जो गठबंधन में शामिल होने को आतुर थी, लेकिन उसे न तो बीजेपी ने और न ही कांग्रेस ने साथ रखने में दिलचस्पी दिखाई.
शुरू में जनता दल सेक्युलर (जेडीएस) और इनेलो के विपक्षी मोर्चे में शामिल होने की अटकलें भी लगीं, लेकिन कांग्रेस की वीटो पॉलिटिक्स ने इन दलों का खेल खराब कर दिया. गठबंधन में नहीं लिए जाने पर असदुद्दीन ओवैसी की एआईएमआईएम ने अलग मोर्चा बनाने की बात कही है.
लोकसभा में AIMIM के 2 और AIUDF-JDS के पास 1-1 सांसद हैं. विपक्षी मोर्चे में 10 ऐसी पार्टियां हैं, जिसके पास एक भी सांसद नहीं है. एनडीए गठबंधन में ऐसे दलों की संख्या 15 के पार है.
आइए जानते हैं, ऐसे दलों के बारे में जो गठबंधन पॉलिटिक्स में बीजेपी-कांग्रेस के लिए अछूत बन गई है?
1. AIMIM- ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (AIMIM) का मतलब होता है- मुसलमानों की एकता परिषद. 1927 में इसकी स्थापना हुई थी और वर्तमान में इस पार्टी के पास देशभर में 1 करोड़ से अधिक सदस्य हैं.
2008 से असदुद्दीन ओवैसी इसके अध्यक्ष हैं. यह पार्टी संवैधानिक दायरे में रहकर मुसलमानों के वेलफेयर और अधिकार की बात करती है.
AIMIM शुरू से आंध्र (अब तेलंगाना) की सियासत में काफी प्रभावी रहा है. ओवैसी के अध्यक्ष बनने के बाद पार्टी का महाराष्ट्र और बिहार में भी विस्तार हुआ. 2019 में AIMIM को 2 लोकसभा सीटों पर जीत मिली. बिहार के किशनगंज में AIMIM के उम्मीदवार तीसरे नंबर पर थे.
वर्तमान में बिहार, तेलंगाना और महाराष्ट्र विधानसभा में भी इस पार्टी के पास विधायक हैं. असदुद्दीन ओवैसी यूपी और पश्चिम बंगाल में जनाधार बढ़ाने की जुगत में भी है. इन दोनों राज्यों में मुस्लिम आबादी काफी अधिक है.
ओवैसी मुसलमानों के बीच काफी लोकप्रिय हैं और उनके भाषण खूब वायरल भी होते हैं. देश में से लोकसभा की 80 सीटें ऐसी हैं, जहां मुस्लिम आबादी 20 फीसदी से अधिक है. बंगाल, असम और बंगाल की करीब 20 सीटों पर 50 प्रतिशत से अधिक मुसलमान हैं.
फिर AIMIM को तवज्जो क्यों नहीं?
बीजेपी से दूरी बनाकर चल रही एआईएमआईएम को विपक्षी मोर्चे से उम्मीद थी, लेकिन क्षेत्रीय पार्टियों की वजह से यह संभव नहीं हो पाया. जानकारों का मानना है कि मुस्लिम मुद्दे को लेकर मुखर रहने वाली AIMIM अगर विपक्ष के साथ आती तो बीजेपी 80 बनाम 20 की लड़ाई बनाने की कोशिश करती.
AIMIM प्रमुख और उनके भाई के कई पुराने विवादित बयान मोर्चे के लिए परेशानी का कारण बन सकता था. इसलिए AIMIM को साथ लाने पर विचार ही नहीं किया गया. साथ ही विपक्षी मोर्चे में शामिल पार्टियों का तर्क था कि 2024 के चुनाव में मुसलमान उन्हीं को वोट देंगे, जो बीजेपी को हराएगा.
क्षेत्रीय पार्टियों का यह भी तर्क है कि AIMIM के पास जो वोट है, वो हमारा ही है. चुनाव में असदुद्दीन ओवैसी बीजेपी के बी टीम की तरह काम करते हैं.
2. जनता दल सेक्युलर- बेंगलुरु में विपक्षी पार्टी की बैठक से पहले जनता दल सेक्युलर के कार्यकारी अध्यक्ष एचडी कुमारस्वामी का एक बयान खूब सुर्खियां बटोरी. उन्होंने कहा कि हमें न तो विपक्ष ने पूछा है और न ही एनडीए से कोई न्योता आया है.
जेडीएस एक क्षेत्रीय पार्टी है, जिसका जनाधार केरल और कर्नाटक में है. इस पार्टी की स्थापना पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवेगौड़ा ने साल 1999 में की थी. वर्तमान में इस पार्टी के पास लोकसभा में एक सीट है. देवेगौड़ा कर्नाटक की राजनीति में कई बार किंगमेकर की भूमिका निभा चुके हैं.
1996 में जनता पार्टी की सरकार में उन्हें प्रधानमंत्री बनाया गया था. कांग्रेस कोटे से 2019 में देवगौड़ा राज्यसभा गए थे. ओल्ड मैसूर और हैदराबाद कर्नाटक में देवेगौड़ा की मजबूत पकड़ है. 2009 के चुनाव में जेडीएस ने लोकसभा की 3 सीटों पर जीत दर्ज की थी.
2014 में भी जेडीएस कर्नाटक की 2 सीटें बचाने में कामयाब रही थी. हाल के कर्नाटक विधानसभा चुनाव में जेडीएस को 13.29% वोट मिले हैं. पार्टी विधानसभा की 19 सीट जीतने में भी कामयाब रही है.
क्यों नहीं आया कहीं से न्योता?
एक महीना पहले कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा ने कहा था कि जेडीएस के साथ मिलकर चुनाव लड़ेंगे. हालांकि, दिल्ली में एनडीए मीटिंग में जेडीएस को नहीं बुलाया गया. इसके पीछे गठबंधन में बात फाइनल नहीं होने को वजह माना जा रहा है.
बीजेपी इसलिए अब तक अपना नेता प्रतिपक्ष भी नहीं चुन पाई है. चर्चा के मुताबिक बीजेपी कर्नाटक में भी झारखंड फॉर्मूला लागू करना चाहती है. झारखंड में जेवीएम का विलय कराकर उसके अध्यक्ष बाबूलाल मरांडी को बीजेपी विधायक दल का नेता घोषित कर दिया था.
बीजेपी कर्नाटक में भी यही चाह रही है. पार्टी का मानना है कि अलग-अलग लड़ने से वोट ट्रांसफर में दिक्कत आएगी और जेडीएस को ज्यादा सीटें देनी पड़ेगी.
बीजेपी-जेडीएस में गठबंधन को लेकर बातचीत होने की वजह से भी कांग्रेस ने भी कुमारस्वामी को न्योता नहीं दिया. कांग्रेस नेता डीके शिवकुमार ने कहा कि अगर बीजेपी से लड़ने के लिए तैयार हैं, तो हम इस पर सोच सकते हैं.
3. AIUDF- ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट का असम में मजबूत जनाधार है. 2019 में पार्टी ने लोकसभा के एक सीट पर जीत भी हासिल की थी. मौलान बदरुद्दीन अजमल ने 2005 में इसकी स्थापना की थी. 2014 के चुनाव में इस पार्टी को लोकसभा की 3 सीटों पर जीत मिली थी.
AIUDF असम के मुसलमानों के हक और हुकूक की बात करने के लिए जानी जाती है. असम में 40 प्रतिशत से अधिक मुसलमान हैं. असम विधानसभा में AIUDF के पास 16 विधायक हैं. पार्टी का 3 सीटों पर दबदबा है. इसके अलावा AIUDF 2-3 सीटों पर खेल बिगाड़ने की भी क्षमता रखती है.
गठबंधन के लिए ग्रीन सिग्नल क्यों नहीं मिला?
असम में गठबंधन की शक्ति कांग्रेस ने अपने पास रखी है. 2021 में कांग्रेस ने असम में महाजोट (महागठबंधन) बनाया था, लेकिन उसे सफलता नहीं मिली. कांग्रेस 95 में से सिर्फ 29 सीटों पर जीत दर्ज कर पाई. वहीं 20 सीट पर लड़कर AIUDF 16 जीत गई.
2019 में AIUDF अकेले दम पर 3 सीटों पर चुनाव लड़ी थी. धुबरी में अजमल ने कांग्रेस के अबु ताहेर को हराया था. कांग्रेस यहां अपने शर्तों पर गठबंधन करना चाह रही है. इसकी वजह सीट का बंटवारा है. कांग्रेस की कोशिश है कि अधिक से अधिक मुस्लिम सीटों पर खुद चुनाव लड़े.
पहले की तरह ही अजमल का दावा 3 सीट पर है. अगर कांग्रेस गठबंधन करती है, तो उसे 1 सीटिंग सीट (बरपेटा) गंवानी पड़ सकती है. कांग्रेस ने इसलिए अभी गठबंधन में अजमल की पार्टी को एंट्री नहीं दी है.
4. इनेलो- इंडियन नेशनल लोकदल के मंच से ही नीतीश कुमार ने विपक्षी एकता की मुहिम शुरू की थी. 25 सितंबर 2022 को देवीलाल के जयंती पर हरियाणा में कई दलों का महाजुटान हुआ था. हालांकि, इनेलो को बाद में न तो विपक्षी मोर्चे से और न ही एनडीए से कोई न्योता आया है.
इनेलो की स्थापना चौधरी ओम प्रकाश चौटाला ने 1996 में किया था. हरियाणा के जाट वोटरों पर इस पार्टी की मजबूत पकड़ रही है. 2014 के चुनाव में इनेलो को 2 सीटों पर जीत मिली थी. 2019 तक हरियाणा विधानसभा में इनेलो दूसरे नंबर की पार्टी रही है.
इतना ही नहीं, चौटाला का राजनीतिक संबंध नीतीश कुमार से भी बेहतर रहा है. इसके बावजूद चौटाला को विपक्षी एका में जगह नहीं मिली है.
गठबंधन में इनेलो को जगह क्यों नहीं?
इनेलो से टूटी दुष्यंत चौटाला की पार्टी जेजेपी का बीजेपी से गठबंधन है, इसलिए इनेलो के लिए एनडीए में ज्यादा जगह नहीं है. विपक्षी एकता में इनेलो को शामिल करने को लेकर कांग्रेस ने वीटो लगा दिया.
कांग्रेस का तर्क है कि 2014 को छोड़ दिया जाए, तो 2004 के बाद से ही इनेलो लोकसभा में सीटें जीतने में असफल रही है. चौटाला परिवार के कई लोग भ्रष्टाचार के मामले में सजायाफ्ता भी रह चुके हैं. यह भी इनेलो के लिए रोड़ा बन गया.